समीर मिश्र की कलम से – बाल मजदूरी और विकसित समाज

समीर मिश्रा की खास रिपोर्ट
बाल मजदूरी किसी भी समाज के लिए एक अभिशाप के तौर पर है या फिर यह कहा जा सकता है कि बाल मजदूरी एक समाज के ऊपर कलंक है जो पूरे खूबसूरत समाज के चेहरे को कुरूप चेहरा बना देता है. बड़े बड़े मंच के ऊपर बड़े बड़े नेता और समाज सेवक बाल मजदूरी के ऊपर खूब लंबे चौड़े भाषण दिया करते हैं सरकार के भी द्वारा हर प्रकार की योजनाओं को लागू कर के बाल मजदूरी पर अंकुश लगाने का प्रयास किया गया मगर जमीनी स्तर पर सच्चाई कुछ और ही है आज भी किसी खाने के ढाबे या फिर किसी चाय पान की दुकान पर आपको एक छोटू जरूर मिल जाएगा जो अधिकतम 12 से 13 साल का होगा और वहां पर नौकरी कर रहा होता होगा दरअसल ये जो छोटू होता है वह असल में होता तो अपने घर का सबसे बड़ा है क्योंकि कहीं ना कहीं से उसी के बल से उसके परिवार की दाल रोटी चलती है

आज हम समाज का आपको वह हिस्सा दिखाना चाहते हैं जिसको हम अपनी खुशी की चादर में कहीं गला दबा कर मार देते हैं हमारे यहां कोई शादी का प्रोग्राम हो बारात निकल रही हो उस समय बैंड बाजे के साथ लाइट वालों की भी बड़ी आवश्यकता होती है यह लाइट सर पर उठा करके चलने वाले लोग होते हैं और उस लाइट का कनेक्शन एक जनरेटर से होता है। इस लाइट में एक हाई वोल्टेज का करंट उनके सर पर होता रहता है आप जरा ध्यान दे करके देखिएगा आप जिस बारात की खुशी में डांस कर रहे होते हैं उस बारात में ही लाइट सर पर लेकर चलता हुआ एक मासूम अपनी मासूमियत का गला घोटता रहता है हम अपनी खुशी में इतने मस्त रहते हैं कि हम को उसकी मासूमियत की मौत दिखाई नहीं देती है आप खुद सोचिए कि जिस उम्र के बच्चों को हम अपने गोद से जल्दी उतरने नहीं देते हैं हम उनको अच्छे अच्छे स्कूलों में भेजने का प्रयास करते हैं उसी उम्र के बच्चे हमारी खुशी के लिए चंद पैसों के खातिर अपने सर पर मौत का सामान लेकर के चला करते हैं आपको ऐसा नहीं है किसी एक शहर में ही यह नज़ारा नजर आए यह हर शहर का एक हिस्सा बन चुका है और एक समाज है जिसको इस ओर देखने का मन ही नहीं करता है
चलिए आज आपको एक बड़े शहर कानपुर की एक बड़ी मार्केट की सैर करवाते हैं कानपुर शहर किसी परिचय का मोहताज नहीं है एक विकासशील शहर जो अपने अंदर हर एक खूबसूरती को समाये है। चलिए इसी खूबसूरत शहर के एक बड़ी मार्केट में आपको लेकर चलते हैं यह मार्केट घंटाघर में है इसको घंटाघर की होजरी मार्केट कहा जाता है इस होजरी मार्केट में होलसेल के कपड़ों की सप्लाई होती है अपने खुद के वजन से ज्यादा वजन के कपड़ों के गांठो को उठाते हुए आपको इस मार्केट में कई छोटू मिल जाएंगे यह वह छोटू होते हैं जिनका बचपन इस कपड़े की गाठों के वजन के बीच में दबकर दम तोड़ देता है 12 साल 13 साल या 14 साल के मासूम बच्चे वजनदार कपड़ों की गांठे उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रखते हैं और वह भी सिर्फ चंद पैसों में। बड़े बड़े सेठ बच्चों से मजदूरी करवाते हैं शायद सोया रहता है वह प्रशासन जिसको बाल मजदूरी के लिए तनख्वाह दी जाती है कि वह बाल मजदूरी को रोक सके. हां कोई विशेष दिवस होता है तो फिर यही अधिकारी और कर्मचारी मंचों पर खड़े होकर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं यही सेठ बड़े-बड़े मंचों पर अपनी बड़बत्तियां हांकते हैं बाल मजदूरी ना करवाने के लिए लंबे चौड़े लोगों को वादे करवा लेते हैं मगर चाबुक खुद के लिए वैध नहीं होते हैं आइए कभी कुछ पल गुजारिए एक घंटाघर की होजरी मार्केट में देखिए किस तरीके से मासूम बच्चे चंद पैसो के लिए अपनी मासूमियत का गला अपने हाथों से घोट रहा है और यह धन्ना सेठ लोग चंद पैसों में ही उनके बचपन को खरीद लेते हैं या गोरा हो या काला हो शुक्ला हो दुबे हो तिवारी हो खान हो सिंह कोई भी अलग नहीं है
बाल मजदूरी को प्रोत्साहन अगर सच देखा जाए तो छोटे बच्चों से कम पैसों में मजदूरी होती है अगर एक मजदूर दुकान पर काम करता है जो व्यस्त है और उसी की जगह दूसरा कोई बाल मजदूर काम करता है तो दोनों की मजदूरी में आधे का फर्क होता है बस यही पैसों को बचाने की लत हमको बाल मजदूरी करवाने लग जाती है बताइए जिस उम्र में हमारे बच्चे पढ़ाई लिखाई और खेल कूद से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते हैं उस उमर में यह छोटू अपने पूरे परिवार का बोझ अपने नाजुक कंधो पर उठा लेता है उसके साथ होजरी के गांठो का भारी बोझ भी।
 मालूम नहीं सदियों से चली आ रही है बाल मजदूरी की परंपरा कब खत्म होगी लगता नहीं कि कोई भी नियम कानून इस बाल मजदूरी की प्रथा को खत्म कर सकेगा। यदि समाज में तरीके का बन जाए कि किसी बच्चे को अपनी मासूमियत बेच कर के अपने परिवार का खर्चा उठाना नहीं पड़ेगा तब शायद हो सकता है कि बाल मजदूरी पर कोई लगाम लग सके मगर तब तक तो लगता नहीं है कि जिन लोगों को या ऐसे कह सकते हैं कि जिन महकमों को इस बाल मजदूरी को रोकने के लिए काम सहेजा गया है उनके  भरोसे कम से कम ना हो पाएगा हम एक आशा करते हैं कि किसी छोटू को अपने घर का छोटू की उम्र में बड़े ना हो ना पड़े

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