बिहार – आखिर ले डूबा पुत्रमोह, नीतीश का भी सिद्धांत के आधार पर इस्तीफा देना गले नही उतरता
शबाब ख़ान
पटना: बीस दिन की राजनीतिक खीचतान आखिरकार नितीश कुमार के एक और इस्तीफे के साथ पूरी तरह से प्रत्याशित नतीजे पर पहुँच ही गई। प्रत्याशित इसलिए कि बीते कुछ समय से सियासी दांव पेंच पर नजर लगाये राजनीतिक विश्लेषकों को नितीश और बीजेपी की बढ़ती नज़दीकियां साफ नजर आ रही थी, और नितीश कुमार के राजनीतिक कैरियर में उनके द्वारा दिए गये इस्तीफों की फेहरिस्त को ध्यान में रखते हुए विश्लेषकों को पूर्वानुमान था कि बिहार में बीजेपी महागठबंधन को एक झटके से मात दे देगी। इस चेक मेट के खेल में बिहार की राजनीति के सबसे बड़े सूरमा को आखिर यह कैसे नही सूझा कि दो बिल्लियों को आपस में लड़वा कर बिहार की सत्ता पर नजर गढ़ाये बैठा बंदर अंदर कर घुसता चला आएगा। यह सोचनीय है।
सिद्धांत का ढोल नीतीश कुमार इतना पीट चुके है कि जनता और राजनीतिक विश्लेषकों को अब इस ढोल की आवाज चाहे वो पास बजाया जाए या दूर दिल्ली में बैठकर किसी भी प्रकार से सुहाने नही लगते है। यदि आपको याद नही कि इस सिद्धांत-इस्तीफे के ढोल कब, क्यो और कैसे पीटे गये तो हम याद दिला देते हैं।
नीतीश कुमार नें 2002 में भाजपा के अध्यक्ष से नाराज़ होकर रेलमंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा दिया। फिर 2013 में मोदी की वजह से भाजपा से गठबंधन तोड़ा। फिर 2014 में आम चुनावों में करारी हार होने पर इस्तीफ़ा और मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। फिर मांझी से भी दिक्कत हो गयी और खुद मुख्यमंत्री बन बैठे। फिर 2015 में राजद के साथ गठबंधन कर लिया। उस समय नीतीश का कहना था कि चाहे जिससे हाथ मिलाना पड़े मिलाँगा लेकिन आरएसएस को बिहार में जड़ फैलाने का मौका नही दूगॉ, आरएसएस से उनका मतलब बीजेपी से था। लेकिन सिद्धांत का राग अलापनें वाले नीतीश नें फिर से रंग बदला, जिसके कायस ज्यादातर विश्लेषक लगा रहे थे। तेजस्वी के कंधे पर बंदूक रखकर 26 जुलाई 2017 को उन्होनें फिर से इस्तीफ़ा दे दिया और महागठबंधन तोड़ दिया। यह बात राजनीतिक समझ रखनें वालों को समझाने की कतई जरूरत नही है कि केंद्र की सत्ता पर मजबूती से काबिज़ बीजेपी सरकार ने ही सीबीआई रेड लालू परिवार पर पड़वाकर लालू के बेटे और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव को भ्रष्टाचार के आरोप में नामजद करवाकर नीतीश को गठबंधन तोड़नें की भूमि तैयार करके दे दी। यह बीजेपी थिंक टैंक की एक सोची समझी रणनीति थी। इधर बिहार के राज्यपाल को जैसे ही इस्तीफा सौंपकर नीतीश कुमार बाहर मीडिया से मुखातिब हुए, वैसे ही पीएम मोदी के नीतीश कुमार के लिए बधाई संदेश टुईटर पर धड़धड़ा आनें लगे।
2013 में जिस भाजपा से मोदी की वजह से गठबंधन तोड़ा था, आज भी वही भाजपा है और मोदी भी वही है, लेकिन आप ने उनसे हाथ मिला लिया। 2015 में नीतीश कुमार नें राजग से भारत को आरएसएस से मुक्त करानें के नाम पर गठबंधन किया था। क्या नीतीश कुमार को पता नही था कि लालू भ्रष्टाचार के मामले में सज़ाएआफ्ता हैं? क्या नीतीश को नही मालूम कि भ्रष्टाचार भारत की राजनीति की रग-रग में है? ऐसे में तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोप को आधार बनाकर फिर से गठबंधन तोड़कर भाजपा से हाथ मिलाने को सिद्धांत का नाम देना वास्तव हास्यपद है। बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव हमेशा से एक हास्यपद कैरेक्टर रहे हैं लेकिन उनकी राजनीति कभी भी हास्यपद नही रही। इसके ठीक उलट मिस्टर सुशासन यानि नीतीश कुमार को हमेशा एक गंभीर शख्सियत माना जाता रहा है लेकिन उनकी रंग बदलती राजनीति अब पूरी तरह से जनता, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों की नजर में हास्यपद बन चुकी है।
जहॉ तक लालू प्रसाद यादव की बात है तो पारिवारिक राजनीति को लेकर भारत के इतिहास में अप्रत्याशित बदलाव देखने को मिले है। पुत्रमोह में महाभारत से लेकर महागठबंधन तक हर जगह राजनीतिक चूहे-बिल्ली का खेल खेला गया है। इसी पुत्रमोह में बिहार की सियासत के सबसे बड़े विजेता लालू प्रसाद यादव 12 साल बाद एक बार फिर बैकफुट पर चले गए।
लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से अलग होकर 1997 में राष्ट्रीय जनता दल यानी आरजेडी का गठन किया था। इससे पहले ही लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी सेवाएं दे चुके थें। लालू यादव 1990 में बिहार के सीएम बने और पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। एक बार फिर 1997 में लालू को बिहार संभालने की जिम्मेदारी मिली, इस बीच चारा घोटाला सामने आने के बाद लालू यादव को इस्तीफा देना पड़ा और उनकी पत्नी राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री बनीं। इसके बाद फिर कभी लालू यादव को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी नसीब नही हुई।
आरजेडी को 2005 के बाद बिहार की सत्ता नहीं मिली। इस दौरान लालू घोटाले के केस में निशाना बनते रहे। मगर भारतीय राजनीति का ये प्रमुख सूरमा कभी सीबीआई से डरा और न सरकार से। चारा घोटाले के शिकंजे ने लालू को आजाद नहीं होने दिया। लालू को एक बड़ा झटका 2013 में तब लगा जब सीबीआई की विशेष अदालत ने उन्हें चारा घोटाला केस में 5 साल की सजा सुना दी। इसके साथ ही लालू की राजनीतिक पारी पर विराम लग गया। संविधान के अनुसार कानूनन आरोप सिद्ध हो जाने के बाद लालू के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लग गई। लालू को सजा होने से पहले ही जून 2013 में जेडीयू-बीजेपी का 17 साल पुराना गठबंधन टूट गया। बीजेपी नीतीश सरकार से अलग हो गई।
उधर 2014 के लोकसभा चुनाव में देशभर में मोदी लहर चली और केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार बनी। केंद्र में मोदी की पूर्णबहुमत की सरकार से न सिर्फ कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों को झटका लगा, बल्कि बीजेपी विरोधी लालू यादव की मुश्किलों का दौर भी एक बार फिर शुरू हो गया। जेडीयू ने अपने दम पर लोकसभा चुनाव लड़ा, मगर कुछ खास नहीं कर पाई। दूसरी तरफ मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश में जैसे बीजेपी के पक्ष में हवा चल पड़ी। राज्य विधानसभाओं में बीजेपी को अपने दम पर अप्रत्याशित जीत मिलने लगी। जिसने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू यादव को हाथ मिलाने पर मजबूर कर दिया, कांग्रेस भी इस महागठबंधन का हिस्सा बनी और बिहार में बीजेपी को परास्त कर दिया।
इस चुनाव में लालू यादव का एक तरह से कमबैक हुआ। पार्टी ने बिहार विधानसभा में सबसे ज्यादा सीटें जीतीं। लालू के दोनों बेटे भी चुनाव जीत गए, गठबंधन सरकार में छोटे बेटे तेजस्वी को डिप्टी सीएम बनवा दिया और बड़े बेटे तेजप्रताप को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिला दिया। अब जब तेजस्वी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे तो लालू एक बार फिर संकट में आ गए। मगर चुनावी राजनीति से आउट हो चुके लालू को पुत्रमोह ने मजबूर कर दिया और आरजेडी की राजनीति पर संकट के बादल मंडरानें लगे।