सांपों से इनकी यारी, भोले शंकर के हैं पुजारी
कनिष्क गुप्ता
इलाहाबाद। सावन का महीना यदि भोलेनाथ की स्तुति और हरियाली के लिए जाना जाता है तो विषधरों का खौफ भी होता है गांव गिरांव में। हां, इलाहाबाद में शंकरगढ़ के आसपास बसे सपेरों की आंखें चमक जाती हैं। आखिर उनके आराध्य भी तो भोले शंकर ही हैं। शंकरगढ़ इलाके में कई गांव आबाद हैं जहां इस समय कुछ अलग ही रौनक नजर आ रही है। संपेरे की बस्ती में भोलेनाथ के पुजारी गदगद हैं।
शंकरगढ़ के राजा महेंद्र प्रताप सिंह के पूर्वजों ने किसी समय बसाया था कपारी गांव। वहां बंगाल से चलकर आए सपेरे रहते हैं। यह सपेरे लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व बंगाल संगम स्नान के लिए आए थे। शंकरगढ़ की पहाड़ियां और यहां की हरियाली देखकर उनका मन कुछ ऐसा रमा कि यहीं के होकर रह गए। गांव में सांपों का खेल दिखाकर जीवकोपार्जन करने लगे। कालांतर में धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ी तो आसपास संपेरे के कई गांव आबाद हो गए। वर्तमान समय में कपारी के अलावा गुड़िया तालाब, लोहगरा के जज्जी का पुरवा, बेमरा, कंचनपुर आदि गांवों में सपेरों के परिवार रहते हैं। सावन के दिनों में इलाहाबाद के विभिन्न इलाकों में नागदेव का दर्शन तो यह संपेरे कराते ही हैं, प्रतापगढ़ और कौशांबी के मंदिर भी इनका ठिकाना बनता हैं। नागपंचमी इनके लिए कमाई का मौका होता है। इस दिन इनकी झोली भर जाती है।
जीव-जंतुओं की सेवा ही धर्म
शंकरगढ़ में आबाद सपेरों के गांवों में जीव-जंतुओं की सेवा का संदेश गूंजता है। खतरनाक सांपों के साथ ही अन्य जीव जंतु भी यहां परिवार के सदस्य की तरह रहते हैं। बस्ती की बुजुर्ग 70 वर्षीय रानी देवी कहती हैं कि हम तो सांपों के पुजारी हैं, जैसे सांपों से लोगों को बचाते हैं, वैसे ही सांपों को भी जीवन देना हमारे कर्म में शामिल है। वह बताती हैं कि घर में सांप परिवार के सदस्य की तरह रहते हैं। छोटे-छोटे बच्चे सांपों के साथ खेलते हैं। इस दोस्ताने की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है कि इस गांव में आज तक किसी की मौत सांप काटने से नहीं हुई है। शायद इसलिए गांव के लोगों में सांपों से डर की जगह प्यार है। लोग सांपों को अपने बच्चों की तरह पालते हैं, उनकी पूजा करते हैं। कोबरा, करिया, वाइपर, रेटल स्नैक, करैत आदि सांपों के साथ ही विषखोपड़ा, गोहटा जैसे बेहद खतरनाक जीव घरों की शोभा बढ़ाते हैं। रानी कहती हैं कि उनके दादा-परदादा भी यहीं रहते थे, जीव जंतुओं की सेवा का धर्म उन्हीं लोगों से विरासत में मिला है।
आजाद करने का होता है वादा
आमतौर पर माना जाता है कि सपेरे, विषधरों को अपनी आय का जरिया मानते हैं, इसलिए उन्हें नहीं छोड़ते। पर इस बस्ती में रहने वालों का कहना है कि जब किसी सांप को पकड़ते हैं तो उससे उसी समय वादा करते हैं कि समय पूरा होने पर उन्हें आजाद कर दिया जाएगा। इसका एक समय मुकर्रर होता है जिसके बाद सपेरों को सांप को आजाद करना पड़ता है। ऐसा न करने पर सपेरे पाप के भागीदार बन जाते हैं। दिलचस्प यह है कि वैसे तो सांप चूहे व मेढक खाने के शौकीन होते हैं, लेकिन बस्ती के बलवंत का दावा है कि पाले गए सांपों को आटे का घोल कुप्पी के सहारे पिलाया जाता है। नाग पूजा की परंपरा बहुत पुरानी
भारत में प्राचीन काल से ही नाग पूजा की परंपरा रही है। माना जाता है कि 3000 ईसा पूर्व आर्य काल में भारत में नागवंशियों के कबीले रहा करते थे, जो सर्प की पूजा करते थे। उनके देवता सर्प थे। इसीलिए प्रमुख नाग वंशों के नाम पर ही जमीन पर रेंगने वाले नागों के नाम पड़े हैं। तब कश्मीर में कश्यप ऋषि का राज था। कश्यप ऋषि की पत्िन कद्रू से उन्हें आठ पुत्र मिले जिनके नाम इस प्रकार हैं- 1. अनंत (शेष), 2. वासुकी, 3. तक्षक, 4. कर्कोटक, 5. पद्म, 6. महापद्म, 7. शख और 8. कुलिक। कुछ पुराणों में बताया गया है कि नागों के प्रमुख पाच कुल थे- अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला। कुछ पुराणों में इन्हें अष्टकुल बताया गया है जो इस प्रकार है वासुकी, तक्षक, कुलक, कर्कोटक, पद्म, शख, चूड़, महापद्म और धनंजय।
अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आध्रप्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है।