ट्रम्प एक साथ कई मोर्चों पर लगा रहे हैं आर्थिक युद्ध की आग इस्राईल के अलावा कोई भी नहीं बचा है अमरीका का दोस्त कही अमरीका से नफ़रत के आधार पर तो नही बन रहा है नया वर्ल्ड आर्डर

आदिल अहमद

ट्रम्प अपने दुशमनों की बड़ी सेवा कर रहे हैं और अपने देश के घटकों को नई नई मुसीबतों में डाल रहे हैं क्योंकि वह एक साथ कई मोर्चों पर आर्थिक युद्ध की आग भड़काने में लगे हुए हैं।

यदि यही रणनीति जारी रही तो दुनिया में उन्हें इस्राईल और सऊदी अरब के अलावा कोई दोस्त नज़र नहीं आएगा।

राष्ट्रपति ट्रम्प ने तुर्की पर आर्थिक प्रतिबंध  लगा दिया, ईरान की आर्थिक घेराबंदी कठोर कर दी, रूसी करन्सी रूबल में कारोबार पर रोक लगा दी, उत्तरी कोरिया पर लगे प्रतिबंध कड़े कर दिए, आने वाले महीनों में वह चीन से अमरीका को चार सौ अरब डालर के निर्यात पर भारी टैक्स लगाने जा रहे हैं और इसी प्रकार के टैक्स वह यूरोपीय देशों से अमरीका को होने वाले निर्यात पर भी लगाना चाहते हैं।

इन समस्त प्रतिबंधों के पीछे इस्राईल का भी हाथ लगता है जिसका अमरीकी राष्ट्रपति पर गहरा असर है। इस्राईल के उच्च पदस्थ सूत्र यह बात गर्व से कह रहे हैं कि इन मामलों की नीतियां इस्राईली प्रधानमंत्री नेतनयाहू ने तय की हैं और नेतनयाहू के चेले तथा ट्रम्प के दामाद जेर्ड कुशनर ने इसका समर्थन किया है। सुरक्षा गलियारों से क़रीब माने जाने वाले इस्राईली लेखक बिन कास्पेट ने भी अपने लेख में यह बात कही है।

जब ट्रम्प एक साथ रूस, तुर्की और ईरान पर प्रतिबंध लगा रहे हैं जो सीरिया के मामले में सूची में एक त्रिपक्षीय गठबंधन बना चुके हैं तो इन प्रतिबंधों से वह इस गठबंधन को और भी मज़बूत कर रहे हैं बल्कि चीन, पाकिस्तान और भारत को भी इस गठबंधन की ओर ढकेल रहे हैं जिन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया है कि वह अमरीका के प्रतिबंधों पर अमल करने के लिए तैयार नहीं हैं।

ट्रम्प ने अपने अब तक के कामों से मध्यपूर्व के दो बड़े मुस्लिम राष्ट्रों को जिनमें से एक शीया है और दूसरा सुन्नी है एकजुट कर दिया है। हम यहां ईरान और तुर्की की बात कर रहे हैं। इस तरह ट्रम्प जो सुन्नी देशों की नैटो फ़ोर्स बनाने के सपने देख रहे हैं वह भी चूर चूर हो जाएंगे।

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि पाकिस्तान के भावी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने अमरीका की ग़ुलामी करने से साफ़ इंकार किया है और पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मुहम्मद फ़ैसल ने कहा है कि पाकिस्तान ईरान पर लगाए गए अमरीकी प्रतिबंधों का हरगिज़ पालन नहीं करेगा बल्कि बिना कोई बदलाव किए ईरान के साथ अपना व्यापार जारी रखेगा। पाकिस्तान एक संप्रभु देश है औन अपने हितों के अनुरूप अपनी विदेश नीति बनाता है।

पाकिस्तान के इस रुख़ का मतलब यह है कि यह देश सऊदी ख़ैमे से निकल गया है और उसने ईरान के साथ खड़े होने का फ़ैसला कर लिया है। बाद में मलेशिया भी इसी मोर्चे से जुड़ने वाला है जिसने सऊदी अरब द्वारा बनाए गए इस्लामी सैनिक एलायंस से बाहर निकलने की पहले ही घोषणा कर दी है और अपनी इसी रणनीति के तहत उसने यमन से अपने सैनिक वापस बुला लिए हैं।

इतना ही नहीं मलेशिया ने तो वह आतंकवाद निरोधक केन्द्र भी बन्द कर दिया जिसकी स्थापना क्वालालमपुर में सऊदी अरब ने की थी और जिसके उदघाटन समारोह में सऊदी नरेश सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ भी शामिल हुए थे। हमें कोई ताज्जुब नहीं होगा अगर इंडोनेशिया भी इसी प्रकार की क़दम उठाता है।

ईरान और पाकिस्तान के क़रीब आने से इलाक़े में अमरीका की योजना फ़ेल हो जाएगी और अफ़ग़ानिस्तान में अमरीका अपना कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएगा जहां उसने 2001 में सैनिक चढ़ाई करने के बाद से अब तक दो ट्रिलियन डालर ख़र्च कर दिए हैं।

प्रतिबंधों से ईरान झुकने वाला नहीं है और न ही क्षेत्र के देशों में ईरान के घटक संगठन कमज़ोर पड़ने वाले हैं और न ही ईरान में सत्ता परिवर्तन होने वाला है। इस प्रकार शासन बदल देने का ज़माना बीत चुका है। सीरिया में सात साल तक हस्तक्षेप किया गया, 70 अरब डालर से अधिक रक़म अमरीका ने ख़र्च की, तीन लाख से अधिक लड़ाकों को प्रशिक्षण देकर इस देश में घुसाया और 70 देशों का गठबंधन भी तैयार कर लिया लेकिन सीरिया की सरकार इसके बावजूद अपनी जगह पर टिकी हुई है तो इसका मतलब है कि हस्तक्षेप करके सरकारें बदल देने का ज़माना गुज़र चुका है।

अमरीका अब अकेला सुपर पावर नहीं है ब्लकि चीन, रूस तथा दूसरे परमाणु देश जैसे उत्तरी कोरिया, पाकिस्तान और भारत भी हैं जो अमरीकी नीतियों का विरोध कर रहे हैं यह भी संभव है कि यूरोप भी बहुत जल्द इसी दिशा में आगे बढ़ेगां

यदि अमरीकी प्रतिबंधों का मुक़ाबला करने के लिए ईरान, रूस और तुर्की एकजुट हो गए तो वह अमरीकी प्रतिबंधों को निश्चित रूप से बे असर कर देंगे। शायद इन प्रतिबंधों के नतीजे में नई आर्थिक व्यवस्था खड़ी हो जाएगी जो डालर पर निर्भर रहने के बजाए कई अलग अलग करेन्सियों पर निर्भर होगी।

कारण यह है कि अमरीका ख़ुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार रहा है और दुनिया भर में अपने ख़िलाफ़ नफ़रत को हवा दे रहा है। अस्सी और नब्बे के दशक में भी एसा हो चुका है लेकिन अब बहुत अंतर है। पहले अमरीका से नफ़रत इसलिए की जाती थी कि वह अतिग्रहणकारी शासन इस्राईल की समर्थन करता है और उसने इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में युद्ध किए लेकिन अब इन कारणों के साथ अमरीके आर्थिक प्रतिबंध और आर्थिक युद्ध भी शामिल हो गए हैं।

विश्व स्तर पर अमरीका के ख़िलाफ़ नफ़रत का तूफ़ान बहुत नज़दीक आ गया है, हम आंधियों के एकत्रित होने का दृष्य देख रहे हैं और इसका नतीजा क्या होगा इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। बहुत संभव है कि तुर्की, ईरान या रूस में कुछ न बदले बल्कि अमरीका में ही सरकार का तख्ता पलट दिया जाए।

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