जाने आखिर क्यों दिया जाता है ईद-उल-अजहा पर कुर्बानी
फारुख हुसैन
पलिया कलां खीरी। पलिया कलां में इदुल अजहा बहुत ही धूमधाम और खुशहाली के साथ मनायी गयी और मुस्लिम समुदाय के लोगों ने इस मौके पर मस्जीदों और ईदगाह में अकीदत के साथ इद उल अजहा की नमाज अदा की इस मौके पर देश में अमनों चैन और देश की खुशहाली और केरल में बाढ़ की समस्याओं से जूझ रहे लोगों के लिये भी दुआयें की गयी और नमाज के बाथ मुस्लिम समुदाय के लोगों ने एक दूसरे के गले लगकर ईद की मुबारकबाद दी और बच्चो ने भी आपस में गले लगकर मुबारक बाद दी ।
नगर के मोहल्ला माहीगिरान और चमन चौराहा के पास मेला लगाया गया जहां चाट पकौड़े कै ठेले खेल खिलौने और आकर्षण झूले लगाये गये जिनका बच्चों ने जमकर लुत्फ उठाया ।ईद के मौके पर पुलिस प्रशासन भी अलर्ट रहा और जगह जगह पूरे दिन पुलिस गस्त करती नजर आयी ।ईद उल अजहा के मुबारक मौके पर लोगों ने अपने अपने घरों में कुर्बानियां भी करवायी ।आपको बता दे कि ईदु उल अजहा के यानी की बकरीद जो कि ईद उल फितर मीठी ईद के ठीक दो माह के बाद मनायी जाती है बकरीद का यह त्योहार मुस्लिम समुदाय का सबसे बड़ा त्योहार माना जाता है इस त्योहार में कुर्बानी का बहुत बड़ा महत्व है इस ईद के मौके पर मुस्लिम समुदाय के लोग अपने अपने घरों में बकरे या फिर किसी और जानवर की कुर्बानी करवाते है ।जो की ईद की नमाज के बाद की जाती है मुस्लिम शरियत के हिसाब इस कुर्बानी के गोश्त को तीन हिस्सों में बाटा जाता है जिसमें पहला हिस्सा गरीबों को तकसीम किया जाता है, दूसरा हिस्सा आस पड़ोशी दोस्त रिश्तेदारों को दिया जाता है और तीसरा हिस्सा अपने लिये रखा जाता है और कुछ लोग गरीबों के हिस्से को निकालकर बाकी बचे गोस्त को घर पर ही बनवाकर सबको खिला देते हैं । कुर्बानी की शुरूआत इस्लामिक मान्यताओं के मुताबिक पैगंबर हजरत इब्राहिम के जमाने से बकरीद की शुरुआत हुई। क्योंकि वह हमेशा बुराई के खिलाफ लड़े।
उनका ज्यादातर जीवन लोगों की खिदमत करने में ही में बीता।वैसे पहली कुर्बानी में पैंगबर हजरत इब्राहीम के द्वारा ही दी गयी जिसमे बताया जाता है कि जब 90 साल की उम्र तक आपकी कोई औलाद नहीं हुई तो आपने खुदा से इबादत की और उन्हें चांद से बेटा इस्माईल मिला और फिर उन्हें सपने में आदेश आया कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। पहले उन्होंने ऊंट की कुर्बानी दी लेकिन इसके बाद उन्हें दोबारा सपना आया कि सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो इब्राहिम ने कई जानवरों की कुर्बानी दे दी।लेकिन उन्हें फिर बार बार वही सपना आने लगा औल इस बार उन्होने सोचा की मेरी सबे प्यारी चीज तो मेरा बेटा है और फिर इस इस बार वह खुदा का आदेश मानते हुए बिना किसी शंका के बेटे के कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपनी शरीकेहयात(पत्नी) हाजरा से बच्चे को नहला-धुलाकर तैयार करने को कहा और फिर वह अपने बेटे इस्माइल को लेकर कुर्बानी देने के लिये चल दिये । इब्राहिम जब वह अपने बेटे इस्माईल को लेकर कुर्बानी देने के स्थान पर ले जा रहे थे तभी इब्लीस (शैतान) ने उन्हें बहकाया कि अपने जिगर के टुकड़े को मारना गलत है।
लेकिन वह शैतान की बातों में नहीं आए और उन्होंने अपनी आखों पर पट्टी बांधकर कुर्बानी दे दी। जब पट्टी उतारी तो बेटा उछल-कूदकर रहा था और उसकी जगह खुदा ने दुंबा ( पहाड़ी जानवर) को खुदा ने भेज दिया और उसकी कुर्बानी दी गयी ।यह देखकर हजरत इब्राहिम ने खुदा का शुक्रिया अदा किया। इब्राहिम की कुर्बानी करने के बाद से अल्लाह की इजाज़त मानकर कुर्बानी दी जाने लगी और फिर तभी से यह परंपरा चली आ रही है जिससे मुस्लिम समुदाय के लोग बकरीद पर बकरे की कुर्बानी देते हैं और यह भी बताया जाता है कि इस वजह से मुस्लिम समुदाय के लोग हज के अंतिम दिन रमीजमारात जाकर शैतान को पत्थर मारते हैं जिसने इब्राहिम को खुदा के आदेश से भटकाने की कोशिश की थी ।