अमेरिका ने माना कि सीरियाई सरकार गिराने की योजना नाक़ाम रही
आदिल अहमद
सीरिया का संकट मार्च 2011 से शुरू हुआ और इस देश को बड़े भयानक गृहयुद्ध में ढकेल दिया गया। इस युद्ध से सीरिया में एसी भयानक तबाही हुई कि लाखों लोगों की जानें गईं और दसियों लाख लोग विस्थापित और बेघर हो गए।
मगर दूसरी ओर सीरिया की जनता, सरकार, सेना तथा सीरिया के घटकों ने इस साज़िश का डटकर मुक़ाबला किया और साज़िश को नाकाम बना दिया।
आज अमरीका तथा उसके यूरोपीय और अरब घटक यह देख रहे हैं कि उनकी योजना पर पानी फिर गया है, सीरिया में बश्शार असद की सरकार बाक़ी है तथा सीरिया को अपने नियंत्रण में लेने और अपनी इच्छा के अनुसार उसे चलाने का उनका सपना समाप्त हो गया है।
सीरिया के मामले में अमरीका के विशेष दूत जेम्ज़ जेफ़री ने माना है कि अब अमरीका सीरिया की क़ानूनी सरकार को गिराने को कोशिश में नहीं है। जेफ़री ने वाशिंग्टन के एक थिंक टैंक में बोलते हुए कहा कि हम सीरिया में बिलकुल बदली हुई सरकार चाहते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहां की सरकार को गिराना चाहते हैं, हम बश्शार असद की सरकार को गिराने का अब प्रयास नहीं कर रहे हैं। अमरीका के विशेष दूत ने अपने इस बयान में यह स्वीकार कर लिया कि सीरिया की बश्शार असद सरकार को गिराने की उनकी योजना नाकाम हो चुकी है। मगर फिर भी सीरिया के बारे में अमरीका का शत्रुतापूर्ण रवैया जारी है। अमरीका ने यह संकेत दिया है कि वह सीरिया की जान तभी छोड़ेगा जब सीरिया की सरकार पश्चिमी देशों से ख़ैमे में शरण ले।
सवाल यह है कि जो पश्चिमी देश सात साल से सीरिया की सरकार को गिराने की साज़िश पर काम कर रहे थे, जिन्होंने पूरे सीरिया को भारी नुक़सान पहुंचाया जिन्होंने आतंकी संगठनों की भी मदद की कि वह बश्शार असद सरकार का तख्ता उलट दें क्या दमिश्क़ सरकार उन पर भरोसा कर सकती है।
अमरीका ज़ोर दे रहा है कि सीरिया में इस्लामी गणतंत्र ईरान का प्रभाव समाप्त हो जाए। जबकि ईरान ने अपने पड़ोसी देशों की मदद को अपनी रणनीति में शामिल किया है और आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में ईरान ने इराक़ और सीरिया की निर्णायक मदद की। ईरान ने दोनों देशों की सरकारों के अनुरोध पर उनकी उस समय मदद की जब अमरीकी सरकार इस कोशिश में थी कि दाइश तथा अन्य आतंकी संगठनों का तांडव जारी रहे।
अमरीकी अधिकारी खुलकर यह बात कर रहे थे कि दाइश संगठन अगले 25 साल तक सीरिया और इराक़ में मौजूद रहेगा।
बहरहाल अब बयानों से साफ़ ज़ाहिर है कि मध्यपूर्व के इलाक़े ही नहीं बल्कि दुनिया में हवा का रुख़ वह नहीं है जो अमरीका तथा उसके घटक चाहते हैं।