फूलपुर के तीन बूथों पर ग्रामीणों ने किया चुनाव बहिष्कार
तारिक खान
प्रयागराज/ इलाहाबाद : फूलपुर लोकसभा क्षेत्र के तीन गांवों के लोगों ने लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया और अपनी मांग ना पूरी किये जाने से नाराज लोगों ने मतदान नहीं किया। मामला दयालपुर रेलवे स्टेशन को बंद करने से ग्रामीणों की नाराजगी का है। चुनाव से पहले ही ग्रामीणों ने चुनाव बहिष्कार का एलान किया था और कहा था कि अगर स्टेशन नहीं मिला तो वोट नहीं देंगे। उसी क्रम में जगदीशपुर, तेजोपुर, रमईपुर के बूथों पर ग्रामीणों ने चुनाव का बहिष्कार किया। पूरा दिन प्रशासनिक अधिकारी और चुनाव आयोग के अधिकारी गांव का चक्कर लगाते रहे और ग्रामीणों को मनाने में जुटे रहे, लेकिन ग्रामीण अपनी मांग पर डटे रहे और जब उनकी दयालपुर स्टेशन बहाल करने की मांग पूरी नहीं हुई तो किसी ने भी मतदान नहीं किया।
जिन मतदान बूथों पर सर्वाधिक बहिष्कार का प्रभाव रहा उसमें फूलपुर का बूथ नंबर 212, 213 व 214 रहा। रमईपुर बूथ पर दूसरे प्रदेश में रहने वाले एक दंपति ने आकर वोट कर दिया और जब बाद में उन्हे पता चला कि चुनाव का बहिष्कार किया गया है तो उन्होंने ने भी बहिष्कार में हिस्सा लिया। इन गांवों में पूरा दिन सन्नाटा पसरा रहा और बूथों पर ग्रामीणों का अधिकारी इंतजार करते रहे पर वोटिंग नहीं हुई। दिन भर फोर्स व अधिकारियों का दौरा चलता रहा और पुलिस सायरन से इलाका गूंजता रहा, लेकिन मतदान के नाम पर अधिकारी कुछ भी नहीं कर सकें। वहीं, दूसरी ओर मीडिया को भी इस खबर को दिखाने से सेक्टर मजिस्ट्रेट ने रोक दिया और खबर बाहर न निकलने का दबाव बनाते रहे। इसके लिये वह पत्रकारों से अभद्रता पर भी उतारू रहे। हालांकि सोशल मीडिया पर ग्रामीणों के एक्टिव होने के कारण सुबह के कुछ घंटे बाद ही चुनाव बहिष्कार की खबर आग की तरह फैली और पूरे जिले में हडकंप मचा रहा।
क्या है मामला
उत्तर रेलवे के प्रयागराज प्रतापगढ सेक्शन के इस स्टेशन की स्थिति मउआइमा और सेवईत के बीच में है और यह फूलपुर लोकसभा व सोरांव विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत आता है। 2005 में यह स्टेशन रेलवे ने बंद कर दिया था और तब से ग्रामीण इस स्टेशन को शुरू कराने के लिऐ आंदोलन कर रहे हैं। लेकिन, जब ग्रामीणों की मांग पूरी नहीं हुई तो विवश होकर इस बार लोकसभा चुनाव का ग्रामीणों ने बहिष्कार कर दिया है।
टूट चुके हैं ग्रामीण
2005 में जब दयालपुर रेलवे स्टेशन पर ट्रेनों का स्टापेज खत्म किया गया, उसके बाद ही ग्रामीण इस स्टेशन को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। चुनाव दर चुनाव आये, जनप्रतिनिधियों के आश्वासन मिले, पर नतीजा सिफर रहा। ग्रामीणों की आवाज गूंजती है पर किसी को सुनाई नहीं पडती। नतीजा अब दयालपुर स्टेशन का अस्तित्व भी खत्म होने जा रहा है। ग्रामीणों का सरकार से सवाल है आखिर क्यों दयालपुर को बंद किया जा रहा है, अगर कमाई का सवाल है तो इस रूट पर कयी ऐसे स्टेशन हैं, जहां यहां से कम कमाई होती है, लेकिन उन्हे नहीं बंद किया जा रहा। ग्रामीणों का कहना है कि उनका यह आंदोलन भविष्य में तब तक नहीं रूकेगा, जब तक की यहां स्टेशन फिर से अतित्व में नहीं आ जाता। आंदोलनकारी कहते हैं कि वह अनुनय विनय करते हुये टूट चुके हैं, जहां भी किसी ने पहुंचने के लिये कहा हम गये, लेकिन हमारी फरियाद किसी ने नहीं सुनी। हम सरकार चुनते हैं ताकि वह हमारी आवाज सुने। जब वह हमारी आवाज नहीं सुनेगी तो हम सरकार चुन कर क्यों करेंगे।
जर्जर है भवन
दयालपुर रेलवे स्टेशन 65 साल से अधिक बूढा हो चुका है। स्टेशन की एक एक ईटें जर्जर काया में बदल कर जवाब दे चुकी हैं। लेकिन आज भी लोग यहां उसी सिद्दत से जुटते हैं, जैसे कल की ही बात हो यह स्टेशन बना हुआ था। किसी के लिये यह घर है, किसी के लिये व्यापार या नौकरी करने का जरिया। हर दिन आवागमन के लिये पलके बिछाकर लोग इंतजार करते हैं कि ट्रेन रूके। ट्रेन के चालक भी दया खाकर या दबाव में आकर अभी तो ट्रेन रोक दे रहे हैं, लेकिन उनपर भी कार्रवाई का डर है, ऐसे में वह अब ट्रेन रोकने से बचने का प्रयास करते हैं। रेलवे कैसे अपने ही स्टेशान को अपनी मौत मरने पर छोड देता है, यह स्टेशन उसका जीता जागता उदाहरण है। दयालपुर बचेगा ? क्या ग्रामीणों को फिर से उनका स्टेशन मिल सकेगा ? यह बडा सवाल है, लेकिन इसका जवाब भविष्य के गर्भ में है।
आधी सदी से एकमात्र साधन
मौजूदा समय में दयालपुर रेलवे स्टेशन मूलभूत सुविधा के तौर पर दर्जनों गांवों के ग्रामीणों का एकमात्र साधन है। जो रेलवे व सरकार की आदूरदर्शी सोच से नेस्तनाबूत हो चुका है। अब इस इलाके के मलाकबेला, बर्जी, तेजोपुर,इस्माइलपुर, हरदुआ, रमईपुर, सैदहा, गहरपुर, नजरपुर, सरांयदीना, खदरा, ओहरपुर, सरांय लहुरी, चकश्याम, रहाईपुर,सुजनीपुर, टीटी अब्दालपुर, भोपतपुर जैसे गांवों के हजारों लोगों का संपर्क आवागमन की दुनिया से टूट जायेगा। इस स्टेशन का इस्तेमाल छात्र, नौकरीपेशा, मजदूर, किसान, व्यवसाई, वकील बडी संख्या में करते हैं। फिलहाल अब सबके सामने आवागमन की बडी चुनौती होगी।
स्टेशन के बारे में
दयालपुर स्टेशन शुरूआती दिनों में केवल कुंभ मेले के दौरान ही अस्तित्व में आता था और इसे आस्थायी तौर एक महीने के लिये बनाया जाता था। कुंभ खत्म होते ही स्टेशन तोड दिया जाता था। लेकिन बाद में ग्रामीणों इस स्टेशन को स्थायी तौर पर यहां बनाये जाने के लिये भागदौड की और गांव के ही कुछ पढे लिखे युवक ने प्रयास शुरू किया। इस दौरान शिक्षा निर्देशालय में काम कर रहे रामचंद यादव ने इसके लिये ग्रामीणों संग प्रयास किया और कागजी कार्रवाई के माध्यम से आवाज उठानी शुरू की। प्रधानमंत्री तक बात पहुंचने के बाद यह स्टेशन अस्तित्व में आया। वैसे तो यह स्टेशन 1954 में ही अस्तित्व में आ गया, लेकिन 1961 में गाडियों का आधिकारिक तौर पर ट्रेन रूकने लगी। शुरू में चार ट्रेने यहां रूकती थी और तीन स्टाफ के सहारे रेलवे को आमदनी भी हुआ करती थी। धीरे धीरे यहां ट्रेनों के ठहराव की संख्या बढी और यह पूरा इलाका भीड भाड से भराने लगा और स्टेशन के गुलजार होने से इलाका डेवलप कर रहा था।
स्थानीय ग्रामीण बच्चा लाल यादव बताते हैं कि 2005 में अचानक स्टेशन तोड दिया गया और स्टाफ हटा दिया गया। कारण बताया गया कि यहां से इनकम अच्छी नहीं होती। उत्तर रेलवे के प्रयागराज प्रतापगढ सेक्शन के इस स्टेशन को बचाने के लिये ग्रामीणों ने खूब दौड लगाई तो किसी तरह सिर्फ दो पैसेंजर ट्रेन ही रूकती है। इस स्टेशन पर अब ना कोई कर्मचारी है और ना ही टिकट मिलता है। बस जो ट्रेन रूक गयी, उस पर बैठकर ग्रामीण यात्रा कर लेते हैं। अब किसी भी वक्त बचाखुचा जर्जर भवन भी गिराकर ईटें भी नीलाम की जानी है। जिससे नेहरू के जमाने का यह ऐतिहासिक स्टेशन अब अपने अंतिम दिन गिन रहा है।