बाबा के दरबार में नही हो क्यों वीआईपी – एमएलसी शतरुद्र प्रकाश
ए जावेद
वाराणसी। बाबा विश्वनाथ के दरबार में वीआईपी व्यवस्था दर्शन करने वालो पर लागू होने का सपा एमएलसी शतरुद्र प्रकाश ने विरोध किया है। सपा के एमएलसी शतरूद्र प्रकाश ने कहा है कि श्री काशी विश्वनाथ विशिष्ट विकास परिषद प्रधानमंत्री की मंशा के अनुसार विश्वधाम की शिव गंगा पथ योजना तो बना नहीं पाई। अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर उन्होंने मंदिर में दर्शन-पूजन की व्यवस्था में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है। श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम की धाराओं को ताक पर रखते हुए मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने धार्मिक कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है।
उन्होंने कहा कि जिस पौराणिक व पारंपरिक तरीके से ज्योर्तिलिंग की पूजा और दर्शन की व्यवस्था चली आ रही है, वह स्थायी रूप से जारी रहनी चाहिए। बाबा विश्वनाथ के मंदिर में कोई वीआईपी या वीवीआईपी नहीं है। बाबा के लिए सभी भक्त बराबर हैं। यहां मंत्री-संतरी, निर्धन-धनवान हर किसी के लिए समभाव है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आठ मार्च को विश्वनाथ धाम का शिलान्यास करते हुए कहा था कि मॉडल के अनुसार अब मां गंगा के साथ भोले बाबा का सीधा संबंध जोड़ दिया है। गंगा से हम सीधे स्नान करके भोले बाबा के चरणों में आकर सिर झुका सकते हैं।
किंतु परिषद ने तो मंदिर से गंगा जी तक ऐसी योजना तैयार की है, जिसमें निर्माण ही निर्माण है। उसमें न तो गंगा जी से मंदिर का दर्शन होगा और न ही मंदिर से शिव गंगा पथ सुगम, आध्यात्मिकता से पूर्ण होगा। मंदिर के न्यास बोर्ड में कोई भी गैर सरकारी निष्णात हिंदू नहीं है जिसको मंदिर की परंपरागत पूजा पद्धति का ज्ञान हो।
क्या है नियम
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर अधिनियम 1983 के मुताबिम मंदिर में पूजा पद्धति के प्राधिकारी मंदिर के अर्चक हैं। अधिनियम की धारा 17(1) में लिखा है कि मंदिर के न्यास बोर्ड से नियंत्रण रहते हुए मंदिर के प्रबंध और नियंत्रण की बाबत मुख्य कार्यपालक अधिकारी मंदिर के सेक्युलर कार्यों के लिए जिम्मेदार होगा।
अधिनियिम की धारा 22(1) के अनुसार मंदिर के अर्चक मंदिर की धार्मिक पूजा पद्धति, परंपरागत धार्मिक विधि विधान को कार्यान्वित करने तथा संरक्षित रखने के लिए जिम्मेदार होंगे। न्यास परिषद, मुख्य कार्य पालक अधिकारी या अन्य कोई भी अधिकारी अर्चकों के धार्मिक कार्यक्षेत्र में किसी भी प्रकार हस्तक्षेप नहीं करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय ने भी 14 मार्च 1997 को यही आदेश निर्गत किया है जिसका पालन बाध्यकारी रूप से अनिवार्य है।