बोल के लब आज़ाद है तेरे – मऊ के भीटी स्थित न्यू बाला जी कालोनी के पास लगता संदिग्ध जमघट, खामोश चौकी इंचार्ज तो खामोश है क्षेत्रीय नागरिक

तारिक आज़मी/बापूनन्दन मिश्र

विचारों की अभिव्यक्ति आजादी की परिभाषा सबसे कम शब्दों में देना हो तो एक शब्द में दे सकते है कि बोल के लव आजाद है तेरे। शायद इसमें सबसे कम शब्दों का प्रयोग हुआ होगा। मगर इन लबो की आज़ादी शायद कही गुम होती जा रही है। अब तो इन लबो की आज़ादी सिर्फ घरो के अन्दर आपस में ही दिखाई देती है जब सास को बहु की पकाई हुई दाल में नमक कम लगे या फिर सास की खांसी बहु के नींद में खलल पैदा कर दे। आवामी तौर पर हकीकत को लबो से निकालने में हम गुरेज़ करते है।

कई मिसाले आपको दे सकता हु। अब आप खुद देखे। किसी चट्टी चौराहे पर कोई दबंग आकर एक गोली हवा में चला कर चला जाए। उस चट्टी चौराहे पर उसको देखने वाले कम से कम 50 लोग हो, मगर गोली की आवाज़ सुनकर मौके पर पहुची पुलिस जब दरियाफ्त करना शुरू करेगी तो कोई नहीं देखे होगा। आम लोग तो बस अभी अभी आये होंगे और उनके सामने की घटना नही होगी। दूकानदार तो सुसु करने गया होगा जिसने देखा कुछ न होगा। हकीकत है कि हमारे लबो की ऐसे मौको पर छिनी हुई आज़ादी, और लबो पर पड़ी गुलामी की ज़ंजीर ही हादसों को पैदा होने का मौका देती है और दबंगों के हौसलों को चार चाँद लगा देती है।

हकीकत तो ये है कि हम अपने मन की हलचल को जाहिर नहीं कर पाते। अगर करना भी चाहे तो दूर-दूर तक हमारी हलचल नहीं पहुंच पाती है उसकी वजह है कि ये हलचल तो सिर्फ मन के अन्दर रहती है जुबा से बयान हो जाए तो फिर क्या बात है ? समाज में बुराई लम्बी छुट्टी ले लेगी। आवामी तौर पर खुशिया आएगी, आज नही तो कल। मगर लब न हिले और हलचल मन के अन्दर ही बैठी रहे तो ऐसी हलचल का क्या फायदा ? वो मिया मिर्ज़ा ग़ालिब का एक उम्दा सा शेर है कि चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन(लिबास), हमारे जेब को अब हाजत-ए-रफू (रफू की ज़रूरत) क्या है ?

हकीकत में हमारे मन की ये सच कहने की हलचल मन के अन्दर दबी ही रह जाती है। इसका नतीजा ये होता है कि हमको कोई न कोई इस्तेमाल कर जाता है। अब आप देखे मऊ जनपद के भीटी से सिर्फ दो सौ मीटर दूर न्यू बालाजी कॉलोनी की मिसाल ले ले। विगत महीनों से रोज ब रोज चोरियां, छिनैतीया तथा रात के समय अगर कोई भी महिला सड़क से उतरकर मोहल्ले के तरफ जा रही है तो उसके साथ छेड़खानी करना। ये तो आम बात होती जा रही है। नुक्कड़ पर लफंगों का जमावड़ा होता है। पुलिस चौकी से महज़ दो सौ मीटर दूर रोज शाम को कुछ लुच्चे लफंगे मोहल्ले के बाहर बैठकर जुआ खेलते या गाजा शराब पीते है। अब आप कहेगे कि पुलिस क्या कर रही है ? वो कार्यवाही क्यों नही करती है ? आप ऐसे में एक सवाल है कि पुलिस को सुचना कौन देता है ? क्या किसी ने कभी कोई लिखित शिकायत किया ?

ऐसे मौको पर जुबा खामोश हो जाती है। लबो की आज़ादी गुलामी की ज़ंजीरो को पहन लेती है। मैं ये तो नही कहूँगा कि आप कानून को हाथ में लेकर खुद इन्साफ करने सड़क पर उतर जाओ। कम से कम आप इसकी जानकारी तो दे। आप पुलिस को लिखित शिकायत तो करे। अगर चौकी इंचार्ज न सुने तो आप थानेदार से मिले, वह भी न सुने तो एक दिन अपने कीमती वक्त में से कुछ लम्हे लिकाले और कप्तान से शिकायत करे। कार्यवाही क्यों नही होगी आखिर ? मगर हम ये सोच कर खामोश हो जाते है कि कौन मुह लगे। कौन यहाँ वहा दौड़े। क्यों भाई ? क्या आपकी यह समस्या नही है। या फिर किसी एक व्यक्ति विशेष की ही समस्या है। आप कोशिश तो करे। बोले तो लबो को आज़ादी का परचम तो थमाये।

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