डॉ एम नसीम आज़मी – हमेशा के लिए बुझ गया उर्दू अदब का एक रोशन चिराग-ए-सुखन
तारिक आज़मी/ इनपुट साभार अदनान
मऊ – उर्दू सिर्फ एक शीरी जुबां ही नहीं बल्कि एक अदब है। एक तहजीब का नाम उर्दू है। मुनव्वर राना साहब का एक उम्दा कलाम इस अदब को थोडा तफसील दे सकता है कि हमने भी सवारे है बहुत गेसू-ए-उर्दू, दिल्ली अगर आप हो तो बंगाल में हम है। इस अदाबो एहतेराम के माँआशरे में गेसू-ए-उर्दू को सवारने और इस गुलिस्तान को रोशन करने के खातिर अल्लाह इकबाल, हसरत से लेकर असदुल्लाह खान ग़ालिब तक कई चराग-ए-सुखन रोशन हुवे।
पूर्वांचल ने भी इस अदाबो एहतराम के मुआशरे से कभी दूर नहीं रह सका, और यहाँ से भी कई अज़ीम शक्सियातो ने उर्दू अदब की काफी खिदमत किया। बड़े नामो में कई नाम ऐसे है जिनका ताल्लुक पूर्वांचल से रहा है। इनमे एक नाम है डॉ एम नसीम आज़मी साहब का। एक बेहतरीन विद्वान, शिक्षाविद्, शायर व एक दर्जन से अधिक किताबो को लिखने वाले डाक्टर एम नसीम आज़मी इन्तेकाल फरमा गये है, उनके इन्तेकाल से पूरा मऊ शहर ही नही बल्कि पूरा मशरिकी सूबा ग़मज़दा है।
उर्दू तहजीब की दुनिया में डाक्टर एम नसीम आज़मी का नाम किसी तार्रुफ़ का मोहताज नही है। इन्होंने जिस हलके में कदम रखा वहां अपनी एक अलग पहचान बनाई। शायरी की दुनिया में कदम रखा तो, फैज़ान-ए-आगही के तौर पर इन्होने एक अपनी शायरी का ज़खीरा आवाम के सामने रखा। लिखने पढ़ने का शौक था तो पत्रकारिता के क्षेत्र में भी कदम रखा, 1975 से 1991 तक रिसाला “अदब निखार” का प्रकाशन किया। जब इन्होंने ने उर्दू अदब में कलम उठाया तो इनकी किताबें “असर अंसारी फिक्र व फन के आईने में (1998)”, “नवाए सर्विश (2001)”, तालिमी तजज़िए (2002)”, तालीमी जेहात (2006)”, “असर अंसारी हयात और खिदमात (2007)”, मौलाना मोहम्मद कासिम नानोतवी के तालिमी तसव्वुरात (2009)”, “नकद-ए-सुखन (2010)”, “मिज़ान-ए-आगही (2011)”, “तालीम और तालीमी अफ्कार (2011)” , ” असर अंसारी पर चंद तहरीरें (2011)”, “तालीमी नेकात (2013)”, “तालीमी एशारात (2014)”, “उर्दू के चंद फिक्शन निगार (2015), “फैज़ान-ए-आगही (2016)”, “राजा राममोहन राय और उनके तहरीकी व तालीमी कारनामे (2016)” आदि किताबो को लिखा। इसके अलावा इन्होंने “अदबी गज़ट” के नाम से 2010 से एक रिसाला भी छापना शुरू किया जो आज भी अपने बदले हुवे नाम से जारी है
डाक्टर एम नसीम आज़मी की सेहत पिछले कुछ दिनों से नासाज़ चल रही थी। इसके लिए अलीगढ़ में उनका इलाज भी चल रहा था। इसी बीच ज़िंदगी और मौत की जद्दोजहद करते हुवे यह चराग-ए-सुखन आखिर में बुझ ही गया और 17 अक्टूबर को जब अलीगढ़ सर सय्यद डे का जश्न मना रहा था, वह इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हो लिए। लोगो के आखरी रुखसत के खातिर उनका जनाज़ा कदीमी मकान में लाकर रखा गया। वो 18 अक्टूबर यानि सफ़र माह की सुबह थी। जो दरो दीवारे नसीम की आवाजो से खुद के कानो में शकर घुलती महसूस करते थे, वही दरो दिवार आज नसीम की हमेशा के लिए ख़ामोशी को देख रही थी। ख़ाक से बना जिस्म ख़ाक में होने को बेताब था और एक अजीब रुखसती थी कि गले मिल कर अलविदा भी न हुआ। रोज़ भी जुमा का था तो बाद नमाज़-ए-जुमा नसीम की भी नमाज़ अदा की गई और इसकी इमामत शहर के शाही इमाम कारी मसीहुर्रहमान साहब ने किया। इसके बाद उनका दाफीन उनके कदीमी कब्रिस्तान भटकुंआ पट्टी, इमामगंज हुआ।
नम आँखों से सुपुर्द—ए-ख़ाक किये गये नसीम साहब भले ही इस दुनिया से रुखसत हो चुके हो, गये हो मगर उनके अलफ़ाज़ हमेशा रहेगे। इस दौरान उर्दू पढ़ाओ तहरीक मऊ की तरफ से एक श्रधांजलशोकसभा का भी आयोजन किया गया। उर्दू पढ़ाओ तहरीक के कन्वेनर ओज़ैर अहमद गृहस्थ ने कहा कि डॉक्टर एम नसीम आज़मी ने तालिब-ए-इल्म के लिये ऐसी ऐसी किताबे लिखीं जो इल्म के सफ़र में काफी मददगार साबित होंगी। डाक्टर शकील आज़मी ने कहा कि मऊ में उर्दू दुनिया का एक चिराग बुझ गया। ये एक ऐसा चिराग था जिसने अपना रोशनी से पूरी दुनिया तक मऊ के नाम और उर्दू अदब को फैलाया। शायर अमीर हमज़ा आज़मी ने डाक्टर एम नसीम आज़मी को एक शख्स नहीं बल्कि पूरी शख्सियत बताया। डाक्टर रफीक अश्फाक ने कहा कि एम नसीम आज़मी को जो इज़्ज़त और हौसला मिलना चाहिए था वह मऊ वालों ने नहीं दिया।
ज़हीर हसन ज़हीर व शमसुलहक चौधरी ने डाक्टर एम नसीम आज़मी के साथ गुज़ारे हुए लम्हों को याद कर रोते हुए कहा कि आज हमने एक मुखलिस, इमानदार और अज़ीम शख्स को खो दिया इन्हें जब भी मौका मिलता था लिखते ही रहते थे आखिरी वक्त तक जब बीमारी की हालत में थे, तब भी कुछ ना कुछ लिखते रहे।