तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – क्या फ़िरोज़ अगर संस्कृत पढ़ायेगा तो वह फ़ारसी के शब्द बोलेगा ?
(तारिक आज़मी)
वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक अजीब किस्म का विरोध चल रहा है। यहाँ संस्कृत विभाग में एक प्रोफ़ेसर की मेरिट के अनुसार नियुक्ति हुई है। नाम उसका फ़िरोज़ खान है। पहले आपको फ़िरोज़ खान के सम्बन्ध में थोड़ी जानकारी दे देते है। वैसे तो शिक्षा किसी धर्म सम्प्रदाय की एकलौती वरासत नही है। हम अँगरेज़ नही है मगर इंग्लिश बोलते है। यह इस बात को ज़ाहिर करता है कि किसी भाषा का ज्ञान उस सम्प्रदाय जिसमे वह प्रयोग होती है से सम्बंधित नही होता है।
बहरहाल, हम फ़िरोज़ खान की बात करते है। लगभग शांत बैठे फ़िरोज़ खान के तरफ से इस विवाद पर कोई क्रिया प्रतिक्रिया नही आई है। शायद फ़िरोज़ खान ने सोचा भी नही होगा कि जिस प्रकार की शिक्षा वह ग्रहण करके उसमे इतने परिपक्व वह हो रहे है कि दुसरे को सिखा सके, वह उनकी शिक्षा और उनके ज्ञान नही बल्कि धर्म और नाम के अनुसार मज़हब तलाश कर इतना विरोध झेलना पड़ेगा तो शायद फ़िरोज़ कही चाय का खोमचा लगा लेते। फ़िरोज़ खान के पिता रमजान खान है। एक बेहतरीन भजन गायक के साथ साथ संस्कृत के अच्छे विद्वान है। उन्होंने संस्कृत से स्नातक किया है। यही नही फ़िरोज़ खान के दादा और रमजान खान के पिता भी संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे। रमजान खान ने अपने दोनों बेटो को भी संस्कृत की तालीम दिया। उनका बड़ा बेटा है फ़िरोज़ खान। ये नाम अब इस लिए राष्ट्रीय स्तर पर जाना जा रहा है क्योकि कतिपय लोगो को आपत्ति है कि फ़िरोज़ खान संस्कृत कैसे पढ़ा सकता है। क्यों भाई फ़िरोज़ खान संस्कृत बोलेगा तो क्या वह फ़ारसी हो जायेगी।
मेरी खुद की शिक्षा में महती भूमिका की बात करे तो मुझको जो तालीम अपने मरहूम (स्वर्गवासी) वालदैन (माता-पिता) से मिली है के अलावा मुझको उर्दू के लफ्जों से रूबरू करवाने वाले शिक्षक का नाम स्वर्गीय लल्लन प्रसाद पाण्डेय था। कभी हमारे परिवार ने ये नही सोचा कि लल्लन प्रसाद पाण्डेय आखिर उर्दू कैसे बोल सकते है और लिख सकते है। जबकि हकीकत ये थी कि किसी आलिम-ए-वक्त से कम जानकारी उर्दू की पाण्डेय सर को नही थी। बेहतरीन उर्दू के ज्ञाता थे। उनका सिखाया आज तक कंठस्त है और आज भी उनको मेरी आत्मा से धन्यवाद निकलता है कि उन्होंने शिक्षा की नेह जो दिया वह आज भी काम आ रही है।
ये लल्लन प्रसाद पाण्डेय जी ही थे जिन्होंने अल्लिफ से अब्बन और बे से बब्बन की जो शुरुआत किया तो आज हम अपना मुस्तकबिल ही नही अपने परिवार के मुस्तकबिल की इबरत लिखने की स्थिति में बैठे है। वैसे ज़िन्दगी तो जिंदगी बनकर भी चलती रहती है मगर तालीम ही इस जिन्दगी को ज़िन्दगी में तब्दील कर देती है। मुझको मालूम है अलफ़ाज़ के कलाकार काफी इस दुनिया में है। मगर लफ्ज़ भी रूह में समाते है इसकी जानकारी हमको भी है। भले ही कोई कुछ भी कहे मगर किसी भाषा पर किसी सम्प्रदाय विशेष का एकाधिकार तो नही हो सकता है। अगर ऐसा होता तो आज इंलिश पढ़ाने के लिए हम क्रिश्चेन शिक्षक की तलाश करते दिखाई दे रहे होते।
जी हां मैं ये भी लफ्ज़ कह रहा हु कि कोई मज़हब किसी एक सम्प्रदाय विशेष की जागीर नही हो सकती है। अगर ऐसा होता तो आप किसी भी दरगाह पर चले जाए वहा आपको मुस्लिम जितने दिखेगे उतने ही हिन्दू धर्म को मानने वाले श्रधा से सुमन अर्पित करते दिखाई देंगे। मैं खुद शहर की एक मशहूर और प्राचीन मंदिर में अक्सर जाता हु। नाम लिखने में अब खौफ होता है कि कही कोई ये न कह उठे कि तारिक आज़मी का मंदिर में क्या काम है ? भाई काम तो कुछ नही है। मगर सुकून के कुछ लम्हों के बीच जाकर वहा के बुज़ुर्ग हो चुके महंत जी की पास बैठता हु। कुछ तस्किरा होता है। कई बाते सीखने को मिलती है। उनसे मिलते समय भी प्रसाद रुपी शुद्ध घी से निर्मित लड्डू मिलता है और विदा होते समय भी कम से कम एक लड्डू मिलता है। मगर इन दो शुद्ध घी से निर्मित लड्डूओ के बीच अनमोल ज्ञान मिलता है। जिक्र-ओ-फिक्र होती है। चर्चा होती है। सीखने को मिलता है।
आप नमस्कार कहो, हम आदाब कहे तो दोनों के बीच का फर्क लोग पता करते रहे। उससे शायद समाज को कोई लेना देना नहीं रहता है। अब फ़िरोज़ खान प्रकरण को ही देख ले। विरोध केवल इस कारण होना कि वह किसी और सम्प्रदाय का है कहा तक वाजिब है। अरे भाई आपको लगता है कि फ़िरोज़ खान आपको वह नही पढ़ा सकते जो आप पढना चाहते हो तो फिर आप एक काम करो, उससे अधिक बड़े ज्ञाता को लाकर उससे उस पोस्ट पर अप्लाई करवा दो।
महामना मदर मोहन मालवीय जी के पौत्र और बीएचयू के चांसलर न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय जी का बयान आया है। एक वीडियो जारी कर मालवीय जी ने छात्रों के धरने को गलत बताया है। इसके बाद भी धरने को राजनैतिक सहयोग मिलता रहा और धरना भले खत्म हुआ हो मगर विरोध आज भी ख़त्म नही हुआ है। शायद विरोध करने वाले “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः” श्लोक को या तो पढ़े नही है और अगर पढ़ा भी है तो शायद उसका अर्थ नही समझा होगा। जहा तक मुझको ज्ञान है कि कई शास्त्रों और पुराण में इसका वर्णन है। ऋगवेद के 28वे खंड में विस्तार से वर्णन आया है। ये वर्णन किसी एक सम्प्रदाय अथवा क्षेत्र अथवा धर्म के लिए नहीं है। ये वर्णन तो संपूर्ण मानव धर्म के लिये है। फिर इस मानव धर्म में कहा से अलग अलग सम्प्रदाय आया।
इस बात का वर्णन करने का हमारा उद्देश्य केवल यही है कि ऋग वेद अथवा किसी भी शास्त्र की जानकारी किसी एक सम्प्रदाय विशेष का एकाधिकार नही हो सकता है। अगर ऐसा होता तो फिर शायद स्वामी लक्ष्मी शंकराचार्य को इस्लाम धर्म के कुरआन और हदीस की जानकारी नहीं होती। किसी ने व्हाट्सअपिया यूनिवर्सिटी की जानकारी ग्रहण करके कहा था कि मदरसों में कोई नही शिक्षक हिन्दू क्यों नही रखा जाता है। भाई इसका रिकार्ड तो मेरे पास नहीं है कि मदरसे में कितने प्रतिशत भारतीय हिन्दू धर्म को मानने वाले है और कितने प्रतिशत भारतीय मुस्लिम धर्म को मानने वाले है। मगर सिर्फ इतना कह सकता हु कि पढ़ाने वाले वहा सभी भारतीय और मानव धर्म को मानने वाले है।
शायद ऐसी स्थिति के कारण ही मैं अक्सर कहता हु कि इस दुनिया में किसी का नाम नही होना चाहिए। क्या करू नाम में मज़हब तलाशने वाले लोगो की कमी कहा छोड़ी है सियासत में। शायद कभी स्थिति ऐसी नही रही है जैसी आज हो चुकी है। फ़िरोज़ खान का विरोध केवल इस कारण हो कि वह फ़िरोज़ खान है मेरे दृष्टि से गलत है। इसके अलावा छात्र मुद्दु पर सियासत भी गलत है। इस मुद्दे को छात्रो ने उठाया या फिर सियासत ने उठाया ये सोचने वाला और मंथन का मसला हो सकता है।