तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – बीत गई “खिचड़ी”, गाँवों से गायब हुई गुड़ की सौंधी महक, तो कान तरस गए इस बार सुनने को “भक्काटाअअअअअअअ”
तारिक आज़मी संग इनपुट बापू नंदन मिश्र
वाराणसी। इस बार बनारस ही नहीं बल्कि पूर्वांचल की धरती की ही बात करते है। बनारस ही क्यों पूरा पूर्वांचल मौज मस्ती को अपनी धरोहर में समेट कर बैठता है। आज भी पूर्वांचल में आम लोगो के तरह बाज़ार से जाकर “पट्टी” न खरीद कर हम गुड को पका कर उसमे छौके लगा कर, उसमे चिनियाबदाम (मुंगफली) के दाने डाल कर नर्म मुलायम पट्टी तैयार होती है। इस पट्टी का स्वाद आप कही और नहीं पा सकते है। बाज़ार की पट्टियों में आप कडापन आपके दांतों सहित मसुडो पर भी नुक्सान पंहुचा सकता है। मगर गाव की सोंधी महक लिए यह नर्म मुलायम पट्टी इसकी तो बात ही कुछ और होती है।
जाड़े के मौसम में गाँव के कोल्हाड़ों में पकने वाले गुड़ की महक किसका ध्यान अपनी ओर नहीं आकर्षित कर लेती थी। गर्म कड़ाहे से उठने वाली गुड़ की सौंधी महक जेहन में आते ही जैसे मुह में उसकी मिठास घुलने लगती थी। किंतु आज खेतों से गन्ना गायब है तो गाँव के खलिहान से कोल्हाड़ और उससे उठने वाली मीठी महक गायब हो गई है। आखिर ऐसा क्या हुआ कि बचपन में जिस महिया (कड़ाहे के ताजै गुड़ का फेन) के लिए बच्चे, जवान और बूढे सभी लालायित रहते थे आज उसकी सिर्फ यादें शेष रह गई है। गाँव में अलाव(कऊड़ा)के चारो तरफ बैठ कर गन्ने के चूसने की परम्परा अब विलुप्त हो गई।
हमारे संवाददाता बापू नंदन मिश्रा ने जब एक किसान से इस मुताल्लिक मुलाकात किया तो काफी कुरेदने पर किसान ने बताया कि समय रहते गन्ना किसानों की समस्याओं पर ध्यान न देने से यह स्थिति आई है। नील गाय एवं अन्य छुट्टा पशुओं से होने वाले नुकसान, नजदीकी चीनी मिलों के बंद होने तथा श्रम लागत का उचित मूल्य न मिल पाना भी गन्ने की खेती के प्रति किसानों की अरुचि का कारण बना। इसका परिणाम यह हुआ कि लोगों ने गन्ने की खेती करना लगभग बंद कर दिया। आज ग्रामीण इलाकों में नाम मात्र की ही गन्ने की खेती हो रही है।
शायद इसको तकदीर का खेल कहे अथवा नौकरशाहों की अपनी सोच, गन्ने पूर्वांचल के खेतो से गायब होते जा रहे है। इसका इस बार सबसे बड़ा असर हमको दिखाई दिया कि खिचड़ी जैसे त्योहारों पर भी पट्टिया प्रोफेशनल चूल्हों पर पकी नज़र आई। प्रोफेशनल चूल्हों पर पकी हुई इन पट्टियों में भले हमको मिठास मिले, मगर उस प्यार भरे स्नेह को इस बार मन तरस गया। मुह में गुड से पकी पट्टियों की मिठास जैसे शुगर लेवल बढ़ा देने को बेचैन दिखाई दे रही थी। मगर जो मुहब्बत की मिठास थी, इस सीज़न गायब हो चुकी थी।
कान तरस गए सुनने को “भक्कटाअअअअअअअअअ”
बनारस का एक प्रचलित शब्द है भौकाल। इस शब्द को बनारस ने अपनी इजाद से दुनिया के नज्र किया है। बनारसी भौकाल का नतीजा तो देखे कि एक फिल्मकार ने अपनी फिल्म में इस शहर की सबसे मशहूर गाली के शब्दों को थोडा तमीज़ का चोगा पहना कर अपनी फिल्म में गाने के तौर पर प्रयोग कर डाला। आपको वो गाना तो याद होगा ही “भाग भाग भाग डीके बोस, बोस डीके।”
इस मुल्क ही क्या आप दुनिया में कही घूम आये, आपको बनारस जैसी मस्ती, अल्हड़पन, मासूमियत कही अगर मिल जाए तो कसम कलम की गुलामी लिखवा लूँगा। चेखुरा से लेकर निरहुआ तक बनारस की अल्हड़ता को झिरिक के जोको से लेकर कमरुनिया के मजाकिया अल्फाजो में समझना भले ही अधिक पढ़े लिखो के लिए साईंस का सवाल हो जाए मगर मगर और ज़िन्दगी तो बनारस में ही है।
भले ही बनारस को दूर बैठे दूर से देखने वाले मेट्रो सिटी समझे, मगर यह शहर बनारस मासूमियत खुद में समेटे कभी सोता नही है। यहाँ के अल्फाजो को आप भले ही कोई डिक्शनरी लेकर बैठ जाए मगर आपको उसके मायने सिर्फ एक बनारसी ही समझा सकता है। इसी क्रम में सबसे बनारस के प्रचलित शब्दों में है “भक्कटाअअअअअअअअअ”। ख़ास तौर पर खिचड़ी में पतंगबाज़ी के दौरान ये शब्द आपको आम बनारसियो के छतो पर सुनाई दे जाता है। अचानक गानों की कर्कश आवाजों के बीच मधुर संगीत जैसा लगने वाला ये शब्द “भक्कटाअअअअअअअअअ” आपके कानो में मिसरी घोल जाएगा।
मगर कमबख्त वक्त की बलिहारी तो देखे कि इस बार ये शब्द सुनाने को कान तरस गए। ऐसा लगा कि आधुनिकता की दौड़ में शायद ये लफ्ज़ इस बार गायब हो गया है। खिचड़ी वाले रोज़ आसमान जहा पतंगों से रंगीन रहता था। इस बार इसका उल्टा ही हुआ। आसमान में पतंगे नाम मात्र की थी। मार्किट में सन्नाटे के बावजूद उम्मीद किया जा रहा था कि खिचड़ी की पतंगों से आसमान रंगीन हो जायेगा। मगर ऐसा नही हुआ। शायद ये आधुनिकता की दौड़ में कल्चर की दुर्गति रही अथवा फिर कारोबार में मंदी की मार रही।
एक पतंग कारोबारी मोहम्मद अकरम ने हमसे बातचीत में बताया कि इस बार आर्थिक मंदी ने कारोबार को काफी प्रभावित किया। दूसरा बड़ा कारण पड़ा, चाईना के मंझो पर कड़े प्रतिबन्ध का। इन दोनों कारणों से बड़े कारोबारियों ने तो अपनी दुकाने भी नही लगाया। धागों पर बने मंझे एक तो कीमत में ज्यादा होते है दुसरे उतने मजबूत नही होते है जितने प्लास्टिक पर बने मंझे होते है। उनकी कीमत भी कम होती है। इस बार इन मंझो की बिक्री शुन्य रही और जनता को वही माल चाहिए था। इन सब वजह ने पतंगों के कारोबार को अच्छी खासी ठेस पहुचाई। कारोबार लगभग 50% कम हुआ है।