जाने आखिर क्या है वजह जो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने छोड़ दिया कांगेस का हाथ
तारिक आज़मी
ज्योतिरादित्य सिंधिया ने 10 मार्च को कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया। दिलचस्प बात ये है कि 10 मार्च को ही उनके पिता माधवराव सिंधिया की जयंती भी होती है। माधवराज सिंधिया जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े थे और अब ज्योतिरादित्य भी शायद ‘घर वापसी’ की राह पर हैं। उन्होंने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को सौंपे अपने इस्तीफ़े में लिखा है कि अब वो ‘नई शुरुआत’ करने वाले हैं। इस्तीफ़ा सार्वजनिक करने से पहले सिंधिया ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से भी मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात से ये लगभग तय हो गया है कि उनकी नई शुरुआत कहां से होने वाली है। लेकिन सिंधिया को ‘नई शुरुआत’ की ज़रूरत क्यों पड़ी?
अब सवाल ये उठता है कि आखिर सिंधिया ने कांग्रेस क्यों छोड़ा ? जैसा कि ज्योतिरादित्य ने अपने इस्तीफ़े में लिखा है, उनके पार्टी छोड़ने की तैयारी एक साल पहले से ही शुरू हो गई थी।मध्य प्रदेश की राजनीति के जानकारों का मानना है कि राज्य में कांग्रेस को सत्ता में लाने के लिए सिंधिया और कमलनाथ दोनों ने ही काफ़ी मेहनत की थी। फिर चाहे वो घंटों-घंटों रैलियां करना हो या लोगों से मिलकर पार्टी का जनाधार तैयार करना। हालांकि जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो मुख्यमंत्री पद कमलनाथ को मिला। ये भी एक सच है कि उस समय राहुल गांधी ने कमलनाथ और सिंधिया को साथ लेकर चलने की बहुत कोशिश की थी। उन्होंने कमलनाथ को कांग्रेस का ‘अनुभवी नेता’ बताया था और सिंधिया को कांग्रेस का ‘भविष्य’।
सिंधिया को मुख्यमंत्री पद न मिलने का कारण ये बताया जाता है कि शायद सिंधिया के समर्थन में ज़्यादा विधायक नहीं थे। सिंधिया का प्रभाव सिर्फ़ चंबल, ग्वालियर और गुना वाले इलाक़ों तक ही है। कांग्रेस पार्टी के नेताओं का मानना था कि उनका न तो पूरे मध्य प्रदेश में प्रभाव है और न ही वो पूरे राज्य को संभाल पाते। यही वजह है कि मुख्यमंत्री पद कमलनाथ को मिला।” मुख्यमंत्री न बनाए जाने के अलावा पार्टी के दूसरे भी कई ऐसे फ़ैसले थे जो सिंधिया के पक्ष में नहीं थे। राज्य में पार्टी प्रमुख का पद भी कमलनाथ को ही दे दिया गया जिससे सिंधिया ख़ासे ख़फ़ा थे।
इसके बाद फिर कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का रवैया सिंधिया को लेकर कभी बहुत सकारात्मक नहीं रहा। यही वजह रही कि सिंधिया कमलनाथ सरकार के फ़ैसलों के ख़िलाफ़ मुखर होकर बोलते रहे। इतना ही नहीं, उन्होंने अनुच्छेद 370 के ख़ात्मे और नागरिकता संशोधन क़ानून पर भी कांग्रेस से अलग राय रखी। इसके अलावा, राज्यसभा सीट पक्की न होने की अटकलों को सिंधिया के फ़ैसले का तत्कालिक कारण बताया जा रहा है। राज्यसभा के लिए सिंधिया की बजाय दिग्विजय सिंह और प्रियंका गांधी के नाम की चर्चा है।
सियासी जानकारों का मानना है कि गुना सीट पर सिंधिया का हार जाना इस बात का स्पष्ट सूचक था कि अपने ही इलाक़ों पर उनकी पकड़ कमज़ोर हो रही है। ऐसे में उन्हें अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाए रखने के लिए एक विकल्प की तलाश थी। आज जो कुछ हो रहा है, ये सिंधिया के उसी विकल्प की तलाश का नतीजा है।” ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए न तो बीजेपी अजनबी है और न बीजेपी के लिए वो अजनबी हैं। सिंधिया परिवार का इतिहास देखने पर साफ़ समझ आता है कि उन्हें किसी ख़ास राजनीतिक या सामाजिक विचारधारा से कोई लगाव नहीं रहा है और ज्योतिरादित्य भी अपवाद नहीं हैं। उनके लिए बीजेपी के राष्ट्रवादी और हिंदूवादी विचारधारा में ख़ुद को फ़िट करना ज़रा भी मुश्किल नहीं होगा।”
ज्योतिरादित्य सिंधिया पिछले 18 वर्षों से कांग्रेस से जुड़े हुए थे। इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण बात है कि राहुल गांधी ने जब आगे आकर पार्टी की कमान संभाली तो सिंधिया उनकी टीम के अहम सदस्यों में से थे। दो साल पहले संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान राहुल गांधी और सिंधिया को मैचिंग जैकेट पहने देखा गया था और उनकी ये तस्वीर भी सोशल मीडिया में ख़ूब वायरल हुई थी।
ऐसा नहीं है कि सिंधिया से पहले कोई कांग्रेस नेता बीजेपी में शामिल नहीं हुआ। असम के हिमंता बिस्वा सरमा को देखिए। कांग्रेस ने उन्हें तवज्जो नहीं दी और अब वो बीजेपी में जाकर चमक रहे हैं। अब सिंधिया के इस्तीफ़े से कांग्रेस के अन्य युवा नेताओं के भी ऐसा क़दम उठाने की आशंका है।”राजस्थान में सचिन पायलट भले ही उप मुख्यमंत्री हैं, उनकी अशोक गहलोत से खटपट होती रहती है। मिलिंद देवड़ा, आरपीएन सिंह और जितिन प्रसाद जैसे युवा नेताओं को पार्टी ने कोई अहम भूमिका नहीं दी है। ऐसे में उनमें असंतोष आना स्वाभाविक है।”
हालांकि मध्य प्रदेश के सियासी जानकारी ये भी कहते है कि हिमंता बिस्वा सरमा की तुलना ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट से नहीं की जा सकती। हिमंता ज़मीन से जुड़े नेता हैं और इसीलिए कांग्रेस को उन्हें खोने का भारी नुक़सान भी उठाना पड़ा। दूसरी तरफ़, सिंधिया और पायलट जैसे लोग वंशवादी राजनीति की वजह से अपनी जगह बना पाए हैं। दिल्ली की मीडिया में इनका प्रभाव ज़रूर है और इसी प्रभाव का इस्तेमाल करके वो अपनी राजनीति भी चलाते हैं।”
सिंधिया को अपने पाले में लाकर बीजेपी के पास दो मक़सद पूरा करने का मौक़ा है। एक तो मध्य प्रदेश की सत्ता और दूसरे राज्यसभा की सीट। राज्यसभा चुनाव के लिए 13 मार्च तक नामांकन दाख़िल होंगे और 26 मार्च को चुनाव। इसलिए बीजेपी इस चुनाव को अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती क्योंकि कई राज्यों में चुनाव हारने के बाद सत्ताधारी एनडीए उच्च सदन में बहुमत का आंकड़ा नहीं छू पाई है। राज्यसभा में बहुमत न होने से पार्टी को कई विधेयक पारित कराने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसलिए सिंधिया का बीजेपी में शामिल होना पार्टी के लिए सोने पर सुहागा जैसा होगा।
अगर बीजेपी सिंधिया को अपने यहां शामिल करने में कामयाब रहती है तो उसके लिए कांग्रेस के अन्य नेताओं को भी पार्टी की तरफ़ लाने का रास्ता आसान हो जाएगा। ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपने यहां बुलाकर बीजेपी ये संदेश भी देना चाहेगी कि कांग्रेस कितनी कमज़ोर हो चुकी है और मोदी-शाह की रणनीति कितनी कारगर है।