हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – पत्रकारिता के लिए एक बड़ी चुनौती है आज का दौर

तारिक आज़मी

जब से मोरबतियाँ को मोमबत्तियां जला कर पढने और पढवाने का सिलसिला देख लिया तब सोचा था कि बहुत लम्बी उम्र शायद इस एक लफ्ज़ की न हो। मगर फिर ज़ेहन ने खुद को बताया कि लफ्ज़ को हयात ही बख्शते है। शायद कुछ और लम्हे इस एक अलफ़ाज़ के सहारे कट जाये। बहरहाल, हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर इस लफ्ज़ को कायम रखते हुवे अपने जज्बातों को लफ्जों की कबा देता हु।

हिन्दी पत्रकारिता दिवस का पखवारा गुज़र चूका है। बीती रात के गज़र ने इशारा कर डाला है कि हिन्दी पत्रकारिता दिवस की शाम खत्म हो चुकी है। हर साल, बीती शब के पहले कई कार्यक्रम देश में आयोजित होते थे। मैं खुद भी पिछले 6 बरस से एक कार्यक्रम आज के दिन ही करता था। मगर लॉक डाउन और वैश्विक महामारी कोरोना के एक ऐसी वजह बनी जब इस बार कोई भी कार्यक्रम आयोजित नही हो सका। मगर हम कलमकार है साहब, दिल में रंजोगम नही रखते। बर्बादियो का शोक मनाना फ़िज़ूल था, आबादियों का जश्न मनाता चला गया के तर्ज पर हमने इसको भी हस्ते हुवे खुद के कार्यक्रमों को वीडियो काल के माध्यम से कर डाला। एक दुसरे को सोशल मीडिया प्लेटफार्म व्हाट्सएप पर और फेसबुक पर बधाई देकर काम चला डाला।

बहरकैफ, आज कुछ अलग अल्फाजो का इस्तेमाल करते हुवे अपनी बातो को आगे बढा रहा है। 30 मई 1826 को गुज़रे हुवे लगभग दो सदी होने को बेताब है। यही वह दिन था जब कानपुर के रहने वाले पंडित जुगल किशोर शर्मा ने बंगाल से ‘उदन्त मार्तण्ड’ नाम से पहला हिंदी न्यूज़ पेपर प्रकाशित किया।  पंडित जुगल किशोर शुक्ल एक वकील भी थे। लेकिन उस समय औपनिवेशिक ब्रिटिश भारत में उन्होंने तत्कालीन कलकत्ता को अपनी कर्मस्थली बनाया। गुलामी की ज़ंजीर में बंधे हमारे प्यारे मुल्क पर ये दौर अंग्रेजो के ज़ुल्मो सितम का था। अँगरेज़ हमारे वतन को लुटने की कोई भी कोशिश जाया नही होने दे रहे थे। कलकत्ता के अमर तल्ला लेन, कोलूटोला से साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन शुरू तो हुआ मगर आर्थिक रूप से मज़बूरी के वजह से यह अखबार एक साल भी नही चल पाया और आखिर एक उगता सूरज डूब गया। हर मंगल को छपने वाले इस अखबार का सफ़र भले ही काफी छोटा रहा मगर एक जज्बा हिन्दी ही नहीं बल्कि देश में पत्रकारिता को एक नई जान दे डाली।

‘उदन्त मार्तण्ड’ पंडित जी का एक हिम्मत भरा फैसला रहा। इस साप्ताहिक समाचार पत्र के पहले अंक की 500 प्रतियां छपी। हिंदी भाषी पाठकों की कमी की वजह से उसे ज्यादा पाठक नहीं मिल सके। दूसरी बात की हिंदी भाषी राज्यों से दूर होने के कारण उन्हें समाचार पत्र डाक द्वारा भेजना पड़ता था। डाक दरें बहुत ज्यादा होने की वजह से इसे हिंदी भाषी राज्यों में भेजना भी आर्थिक रूप से महंगा सौदा हो गया था। पंडित जुगल किशोर ने सरकार ने बहुत अनुरोध किया कि वे डाक दरों में कुछ रियायत दें जिससे हिंदी भाषी प्रदेशों में पाठकों तक समाचार पत्र भेजा जा सके, लेकिन ब्रिटिश सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई। अलबत्ता, किसी भी सरकारी विभाग ने ‘उदन्त मार्तण्ड’ की एक भी प्रति खरीदने पर भी रजामंदी नहीं दी। पैसों की तंगी की वजह से ‘उदन्त मार्तण्ड’ आखिरकार 4 दिसम्बर 1826 को आखरी अल्फाजो के साथ गुरूब हो गया।

ये एक अलख थी और मुल्क में एक जज्बे को पैदा कर डाला। जज्बा भी कोई छोटा मोटा नही था। एक वाक्या बताता चलता हु जिससे खुद के पत्रकार होने पर फक्र होगा और नाज़ करेगे खुद के बुजुर्गो पर जिन्होंने इस पत्रकारिता के कलम को खुद के खून से सीच कर यहाँ तक पहुचाया। अगर हम तवारीख की बात करे और उर्दू अख़बार “स्वराज” का ज़िक्र न करे तो ईमानदारी नही होगी। कलम को खून से सीच कर भी खुद के कलम से झूठ नही निकलने दिया बल्कि इन्कलाब की अलख जगाये रखा था।

“स्वराज” इलाहाबाद से निकलने वाला एक उर्दू अखबार था जो हफ्ते में एक बार छपता था। लोग बेचैनी से इस अख़बार का इंतज़ार करते थे। साल 1907 में उर्दू में निकलने ये अखबार एक ऐसा अखबार थे जिसने ढाई साल में ही आठ सम्पादक देखे। ऐसा नही था कि सम्पादको को हत्या जाता था या फिर वो काम छोड़ देते थे। बल्कि हकीकत ये थी कि उनकी दहकती कलम से निकले अल्फाजो से अंग्रेजी हुकूमत की जेड गर्म होकर पिघलने लगती थी और उनके ऊपर मुक़दमे होकर उनको हिरासत में ले लिया जाता था। इतनी मुसीबतों के बाद भी “स्वराज” के कलम की धार कभी कम नही हुई। इसके सम्पादकों को काला पानी की सजा हो गई। सात सम्पादकों को कुल मिलाकर 94 साल 9 महीने की सजा हुई। सबसे हैरत अंगेज़ आज के वक्त में नौजवानों को ये बात लगेगी कि इनमे से कोई भी सम्पादक मुस्लिम नही थी। उर्दू के अख़बार का सम्पादक मुस्लिम न हो ये आज लोगो को हैरतअंगेज़ कर सकता है, मगर हकीकत में ये हमारे मुल्क की गंगा जमुनी तहज़ीब की जिंदा मिसाल है।

“हिन्दुस्तान के हम, हिंदुस्तान हमारा” की टैग लाइन से छपने वाला ये अख़बार अंग्रेजी हुकूमत के ताबूत में कील ठोकने का काम कर रहा था। इन्कलाब का जज्बा मुल्क में बुलंद कर रहा था। मुल्क के नौजवानों का भी जज्बा ऐसा कि कुल 8 सम्पादकों को सजा मिलने के बाद उस वक्त के कलेक्टर के तंजिया लहजे का जवाब इस अख़बार ने इस तरह दिया कि एक विज्ञापन आवश्यकता है का छापा। विज्ञापन में था कि ज़रूरत है एक सम्पादक की वेतन दो वक्त की सुखी रोटी और एक गिलास पानी, हर तीन सम्पादकीय लिखने पर तीस साल की सजा। इसका नतीजा सामने था कि उस वक्त मुल्क के काबिल लोगो ने इस पोस्ट के लिए अप्लाई किया था और वो भी एक दो नहीं बल्कि कुल 12 आवेदन आ गए। ये वो दौर था जब पत्रकारिता मुश्किल थी। मगर ये आज एक बार फिर कायम है।

आज भी है पत्रकारिता का मुश्किल दौर

ऐसा नही है कि पत्रकारिता का मुश्किल दौर खत्म हो चूका है। दौर तो मुश्किल आज भी है। फर्क सिर्फ इतना है कि गोरो से इस बार मुकाबला नही बल्कि खुद से हमारा मुकाबला खुद को करना है। मुश्किल दौर में सबसे ज्यादा कलम के लिए मुश्किल है पत्रकारिता में पैसो की चकाचौंध ने इसको सबसे ज्यादा मुश्किल खडी कर दी है। आप नज़र उठा कर देखे खबरों के पीछे की भागदौड़ के बजाये चमक दमक के भागदौड़ करती पत्रकारिता दिखाई देती है। कलम चलती है तो उसको मेहनताना भी मजबूत मिलता है।

हालात का जायजा आपको लेना है तो एक बार आँख उठा कर टीवी पर होती डिबेट देख ले। आपको पत्रकारिता करते एंकर दिखाई देंगे। आप अक्सर ताज्जुब में पड़ जायेगे कि इनमे से दल के प्रवक्ता आखिर कौन है ? खुद की हुक्मरानी चलाने के चक्कर में दूर तक नहीं सोचने की वजह है कि आज कलमकारों को बिकाऊ का ठप्पा लगा दिया जाता है। हकीकत में हमको बहुत बुरा लगता होगा, मगर हम फिर खामोश रह जाते है।

बनावटी पत्रकार बने मुश्किल

पत्रकारिता के लिए आज के दौर में सबसे ज्यादा मुश्किल बनावटी पत्रकार से होता है। ऐसा नही है कि अचानक लॉक डाउन में बनावटी पत्रकार पैदा हो गये। असल में ये सभी पहले से ही थी। बस वजह इनके इतनी ताय्दात में नहीं दिखाई देने की सिर्फ एक थी कि ये हमारे आपके कामो में सामने आते नही थे। इनका एक काम था कि प्रेस लिख कर वाहन चेकिंग से बच जाये। मगर लॉक डाउन से जब पूरा मुल्क घरो में कैद था तो ये बनावटी अपनी झूठी शान के खातिर सडको पर दौड़ धुप करने लगे थे। जिसकी वजह से असली के बीच अचानक नकलियो की भीड़ दिखाई देने लगी।

इसकी शुरुआत पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक शहर से हुई। जहा वाहन चेकिंग के दौरान लॉक डाउन में एक पत्रकार महोदय धरे गए। उनसे जब पुलिस ने बात किया तो जानकारी मिली कि महोदय कक्षा 3 पास है और कबाड़ का कारोबार करते है। महज़ 2100 रुपया खर्च करके वो अचानक कार्ड बनवा कर पत्रकार बन बैठे। फिर क्या था उन्होंने खुद के शान की खातिर इस काले कारोबार को अपना लिया और 250 से ज्यादा कार्ड बनवा डाले। अचानक एक ही मोहल्ले में 250-300 पत्रकार पैदा हो गए। वैसे ये किसी की नज़र में नहीं आते क्योकि इनको पत्रकारिता से कोई लेना देना तो था नही, बस वाहन चेकिंग के दौरान निकल जाए इसी से मतलब था। मगर लॉक डाउन में घूमना भी ज़रूरी था तो निकल पड़े सडको पर खुद की गाडी पर प्रेस लिख कर गले में कार्ड लटकाये हुवे। फिर क्या था, इतनी भीड़ देख प्रशासन भी हैरान और कार्यवाही किया तो काफी इसके ज़द में आ गये।

ये तो फिर भी कम था। कानपुर में एक साहब सेक्स रैकेड चलाते हुवे पुलिस के हत्थे धरे गये। उनकी तलाशी में साहब के पास एक प्रेस कार्ड मिला। इस प्रेस कार्ड मिलने के बाद फिर सम्पादक महोदय हर जगह सफाई देते दिखाई दिए कि उस व्यक्ति से उनके अख़बार का कोई लेना देना नही है। यही बात कहा खत्म होती है साहब, ऐसा ही बनारस में हुआ, एक चोरी के आरोप में पकडे गए व्यक्ति के पास से भी कार्ड मिला। मगर सम्पादक ने बताया कि उसको वो जानते भी नही। बहरकैफ, यहाँ भी सडको पर लॉक डाउन के दौरान काफी पत्रकार दिखाई दिए। कुछ तो लॉक डाउन के लगने के बाद पत्रकार बने और काफी पहले से ही थे मगर नज़र केवल इस वजह से नही आते थे क्योकि उनको पत्रकारिता से कोई लेना देना तो था नहीं।

इन मुश्किल हालात में पत्रकारिता को जिंदा रखना ही बहुत मुश्किल काम होता जा रहा है। आप सही खबर लिखिये तो ऐसे ही पत्रकार आपके खिलाफ साजिशो का दौर चला पड़ेगे जिनको हाथो में कागज़ कलम थमा दो तो चार लाइन की अप्लिकेशन नहीं लिख पायेगे। खबरे उनकी कही दिखाई नही देंगी मगर खबर पर नज़र ज़रूर आयेगे। सोशल मीडिया पर चार लाइन की पोस्ट के लिए भी कापी पेस्ट की तलाश करते खुद को मसीहा समझने वाले, थानों और पुलिस चौकी के सरपरस्त बनकर आपको ही साजिशो के तहत उलझा देंगे। फिर क्या लो कर लो पत्रकारिता। हो जायेगी पत्रकारिता। हमारे पूर्वजो ने भले गोरो से अपनी कलम के बल पर जंग लड़ी, मगर अब हमारी जंग कलम के ही नाम पर बिकवालो से है। इस कठिन दौर में खुद को सुरक्षित रखते हुवे पत्रकारिता करना मुश्किल भरा सफ़र हो चूका है।

हमारी निष्पक्ष पत्रकारिता को कॉर्पोरेट के दबाव से मुक्त रखने के लिए आप आर्थिक सहयोग यदि करना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें


Welcome to the emerging digital Banaras First : Omni Chanel-E Commerce Sale पापा हैं तो होइए जायेगा..

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *