तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – “शाहीन के बच्चे मुंडेर पर उड़ना नही सीखते हुजुर,” जरा गौर कर ले
तारिक आज़मी
शाहीन…! जिसको आप बाज़ अथवा इगल भी कहते है। शाहीन के मुताल्लिक कहा जाता है कि “शाहीन के बच्चे मुंडेर पर उड़ना नही सीखते।” बेशक अगर एक बाज़ के ज़िन्दगी पर गौर करे तो शायद आपको अहसास होगा कि स्ट्रगल क्या होता है। उनकी पैदाईश से लेकर ज़िन्दगी के उस जंग तक जिसको हम सोच भी नही सकते है लड़ना एक बाज़ बहादुरी के साथ लड़ता है। उसको पैदा होते के साथ ही एक कड़ी कमांडो ट्रेनिंग के दौर से गुज़रना पड़ता है। जिसके बाद वो एक ऐसा जंगजू बनता है जो अपने से कही अधिक वज़न के पंक्षी का शिकार कर सकता है। बाज़ की ज़िन्दगी को देख कर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
जब एक बाज़ का बच्चा पैदा होता है तो उसी वक्त से उसकी ट्रेनिंग शुरू हो जाती है। मादा बाज़ यानी उसकी माँ उसको पंजे में जकड कर उड़ जाती है। काफी उचाई तक यानी लगभग 12 किलोमीटर की उचाई पर। यानी अमूमन जहाज़ जिस उचाई पर उड़ते है। इस दुरी को तय करने में मादा बाज़ को महज़ 7-8 मिनट का वक्त लगता है। उस नन्हे चूजे को जिसके उम्र के अन्य पंक्षियों के बच्चे चिचिहाना शुरू करते है उस उम्र में एक बाज़ की ट्रेनिंग शुरू होती है। इस उचाई से लेजाकर उस नन्हे से चूजे को सिखाया जात है कि आखिर उसका जन्म किस लिए हुआ है। उचाई क्या होती है। परवाज़ उसकी क्या है ? हकीकत में परवाज़ उसका मज़हब है और इसी परवाज़ के लिए उसका जन्म हुआ है।
इतनी उचाई से जाकर मादा बाज़ उस नन्हे चूजे को अपने पंजो से आज़ाद कर देती है। वो नन्हा चूजा समझ भी नहीं पाता है कि आखिर उसके साथ हो क्या रहा है ? बड़े तेज़ी के साथ वह ज़मीन के तरफ गिरने लगता है। लगभग चार किलोमीटर का ये नीचे आने का सफ़र तय करते करते उस नन्हे चूजे के पंख खुद ब खुद फड़फड़ाने लगते है। उसके पंखो पर जमा कंजाईंन उसके पंखे से छूटने लगता है। ये पहला मौका होता है कि जब बाज़ पहली बार अपनी ज़िन्दगी में पंख फडफाड़ाता है। मगर भी भी वो उड़ नहीं पाता है। फिर सफ़र उसका ज़मीन का लगभग 3 किलोमीटर बचता है। वो धरती के एकदम करीब आ जाता है। मगर उसके पंख तो खुल चुके होते है फिर भी उसको परवाज़ नही आती है। ज़मीन का फासला सिर्फ 400-500 मीटर बचता है। उस मासूम चूजे के दिमाग में आने लगता है कि यह उसकी ज़िन्दगी का आखरी सफ़र था।
मगर अचानक एक मजबूत पंजा उसको जकड कर अपने पंखो में समा लेता है और फिर एक बार उसी 12 किलोमीटर की उचाई पर उड़ जाता है। फिर दुबारा ऐसा ही सबकुछ दोहराया जाता है और आखिर में एक शाहीन अपनी परवाज़ पा लेती है। शायद ऐसी कड़ी ट्रेनिंग के कारण ही शाहीन एक जंगजू बनता है। वो भी एक माँ होती है जो अपने चूजे को इतनी कड़ी ट्रेनिंग देती है। हालात से लड़ना सिखाती है। उसको इतना मजबूत बनती है कि शाहीन की परवाज़ से लेकर शिकार तक उसकी बहादुरी का बयान करता है। एक शाहीन अपने से दस गुना ज्यादा वज़नदार प्राणी का भी शिकार करता है। एक आलिशान ज़िन्दगी जीता है। नीले अम्बर को चूमने के लिए परवाज़ करता है।
चूजे तो “ब्रायलर” मुर्गो के भी होते है। टाँगे मजबूत होती है मगर ज़बरदस्त दौड़ नही सकता। पंख खुबसूरत होते है मगर उड़ नहीं सकता। फिर क्या फायदा ऐसी मजबूत टांगो का और पंखो का। ऐसे खुबसूरत पंखो का। ऐसी सफेदपोशी का। शायद कोई फायदा नही। यहाँ से आप सोचे कि आप बच्चो को कैसे देखना चाहते है। एक शाहीन के तरह जो खुद की परवाज़ कर सके। या फिर नही। हर माँ बाप को उसके बच्चे प्यारे होते है। मगर उनको सीने से चिपका कर उनकी हर समस्याओं को खुद हल कर देने से उनकी वो आदत में शुमार हो जायेगा। उन्हें हालात से लड़ना सिखाये। उनको संघर्ष ही जीवन है का पाठ पढ़ाने के बजाये उसकी तरबियत दे।
शाहीन के जंगबाज़ी की कहानी यही खत्म नही होती है। बल्कि इसके आगे भी एक मुकाम ऐसा आता है जिसमे एक शाहीन को इससे कही अधिक दर्द और इज्ज़त की ज़िन्दगी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। शाहीन की अमूमन उम्र 70 बरस के करीब होती है। 40 साल का होने के बाद उसके पंख कड़े हो जाते है और छाती से चिपकने लगते है। चोच मोटी और नीचे के तरफ मुड जाती है जिससे शिकार नही किया जा पाता है। पंजे के नाख़ून मोटे होकर मुड जाते है जिससे उसके पंजे की पकड़ कमज़ोर पड़ जाती है। शाहीन अपने परवाज़ को तरसने लगती है।
यहाँ उसके पास ज़िन्दगी के दो आप्शंस आते है। एक ज़िन्दगी की जुस्तजू के लिए दुबारा संघर्ष करे। दूसरा किसी और के छोड़े हुवे टुकडो पर पले और तीसरा खुद की ज़िन्दगी खत्म कर ले। अमूमन हमारी नवजवान पीढ़ी इस हालात में तीसरा आप्शन पसंद करने लगती है। खुद की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करके खुद को डिप्रेशन में डाल देना और फिर इह लीला खत्म कर देना। मगर शाहीन एक जंगजू परिंदा है। उसको कैद मंज़ूर नही खुद के ज़िन्दगी में रीबर्थ की तैयारी वो शुरू करता है। भले ये दर्दनाक हो मगर शाहीन इस दर्द को अपनी परवाज़ से मुहब्बत की वजह से चुनता है।
शाहीन एक उची चट्टान पर जाकर अपना घोसला बनाता है। घोसला बन जाने के बाद वो खुद के मोटे और भारी हो चुके पंखो को चोच से तोड़ कर फेक देता है। अपने नाखुनो को चट्टान पर मार कर तोड़ देता है। इसके बाद खुद की चोंच को पत्थर पर मार मार कर तोड़ डालता है। इन सबके बाद वो देखने में अजीब किस्म का लगने लगता है। ये सब करने में उसको बेपनाह का दर्द सहना पड़ता है इसका अंदाज़ आप खुद लगा सकते है। इसके बाद वो जिंदगी के सबसे कठिन पांच महीने गुजारता है। उसकी जुस्तजू रहती है कि वह नये जन्म को पाए। धीरे धीरे उसके पंख उगने शुरू हो जाते है। उसकी चोंच भी आकर लेने लगती है। पंजे के नाख़ून बढने लगते है। इसमें कुल पांच महीने गुज़र जाते है। कई राते और दिन बाज़ भूखा रहता है। संघर्ष करता है। और फिर इंतज़ार का वक्त खत्म होता है। कुल पांच महीने के बाद शाहीन दुबारा परवाज़ भरता है। वही 12-14 किलोमीटर की उचाई पर उड़ान भरता है। वही मारक क्षमता उसके अन्दर आ जाती है। वही पुरानी पंजो में पकड़ा आ जाती है। जिसके बाद शाहीन 30 साल और ज़िन्दगी आलीशान तरीके से काटता है।
अब आप खुद सोचे। एक परिंदा शाहीन जब अपने ज़िन्दगी में इस तरीके का संघर्ष करके भी ज़िन्दगी से मुहब्बत नही छोड़ता है। मगर हम है कि थोड़ी सी मुसीबत आने पर भगवान् को मंदिर में और रब को मस्जिद में तलाश करने लगते है। “हर दिल में है रब बस्ता” के तर्ज को हम भूल जाते है और मस्जिदो में रब तलाशते फिरते है। मगर जब रब नही मिलता तो इस विश्वास उठ गया कहकर हम संघर्ष छोड़ देते है। सोचे क्या हम एक ईगल से कमज़ोर है एज शहिन से कमज़ोर है। सोचे और समझे, तब फैसला लेने से पहले एक बार शाहीन को ज़रूर चोचे