जब गांधी जी खुद पहुच गए थे मृतक अब्दुल हफीज के घर और दिया था परिजनों को सांत्वना

तारिक़ आज़मी

मोहन दास करम चन्द्र गांधी को महात्मा गांधी ऐसे ही नही कहा जाता है। गाँधी जी ने देश में आम नागरिको के लिए जो सम्मान पेश किया वह एक नजीर है। शायद उनके बाद कोई ही ऐसा हुआ होगा जिसने आम भारतीय नागरिको को इतना सम्मान दिया। गुलामी के दौर में गाँधी जी वीवीआईपी से कम नही थे, मगर गाँधी जी इस वीआईपी कल्चर को कभी नही मानते थे। वह आम नागरिको से सीधा संवाद और संपर्क रखते थे।

कोई सौ साल पहले महात्मा गांधी कानपुर आए थे, तब भी स्वागत जुलूस के दौरान ट्रैफिक में फंसने से अब्दुल हफीज नामक व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। गांधीजी उसकी मृत्यु से इस कदर व्यथित हुए कि तत्काल स्वागत कार्यक्रम रद्द करवा दिया और पहुंच गए अब्दुल के घर। इस घटना का जिक्र महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है।

बात 21 अप्रैल 1920 की है। इसमें गांधीजी ने लिखा है, “दिल्ली से मुझे प्रयाग तो जाना ही था। वहां से मोतीलाल से मिलकर लौट रहा था, तभी कानपुर जाने का आग्रह किया गया। कानपुर रास्ते में पड़ता है। बम्बई (मुंबई) की तरह कानपुर भी कपड़ा मिलों का केंद्र है। यहां हसरत मोहानी साहब के विशेष प्रयास से स्वदेशी भंडार खोला गया, जिसका उद्घाटन करना था।“

हसरत मोहानी भी भारतीय इतिहास में एक बड़ा नाम है। उन्नाव जनपद में मोहान के रहने वाले हसरत मोहानी भी बड़े स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी और गाँधी जी के काफी करीबी माने जाते थे। गांधी जी के आने के कार्यक्रम के इस मौके पर हजारों लोग एकत्र हुए थे। गाँधी जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि “मेरे पहुंचने से पहले अली भाई पहुंच चुके थे, सम्मान में बहुत बड़ा जुलूस निकाला गया था।’ भीड़ इस कदर थी कि यातायात संभालना मुश्किल हो गया और एक गाड़ी का घोड़ा बिदक गया। घोड़े की लात पास खड़े अब्दुल हफीज की छाती पर लगी और वह उसी ठौर ढेर हो गये। अली भाई गाड़ी से उतरे और एक खाट मंगवाकर उसका शव उसमें रखा।

इस बीच गांधीजी आ गए और उन्हें स्टेशन पर ही यह दुखद सूचना मिली। गांधीजी ने तत्काल स्वागत समारोह और जुलूस रद्द करवा दिया। वह इस कदर दुखी थे कि स्वदेशी भंडार के उद्घाटन की औपचारिकता भर की। वहां न भाषण हुआ और न ही स्वागत। इसके बाद उन्होंने कहा कि उन्हें उस जगह ले जाया जाए, जहां अब्दुल का शव रखा है।

गांधीजी वहां शोक का माहौल देख बेहद भावुक हो गए। गांधीजी ने अब्दुल के परिजनों को ढांढस बंधाया और नजीर भी पेश की कि आम नागरिक की मौत कितनी मायने रखती है। उस वक्त तो गांधीजी भी बड़ी शख्सियत थे। गुलामी का दौर था, लेकिन उनकी हैसियत किसी वीवीआइपी से कम न थी। शायद उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि आजाद भारत में वीआईपी कल्चर कितना हावी हो जाएगा कि आम नागरिक की जान की कोई कीमत ही नहीं होगी। आज देख ले ऐसा ही तो दौर है।

हमारी निष्पक्ष पत्रकारिता को कॉर्पोरेट के दबाव से मुक्त रखने के लिए आप आर्थिक सहयोग यदि करना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें


Welcome to the emerging digital Banaras First : Omni Chanel-E Commerce Sale पापा हैं तो होइए जायेगा..

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *