तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ : आयुक्त साहब, सच में बहुते ख़राब है काली महल की सड़क, हम खुद ही गिर गए अपने काका के संग, बड़ी जोर की चोट आई है साहेब
तारिक़ आज़मी
वाराणसी। हमारे काका बहुत ही जिद्दी होते जा रहे है। आज सुबह ही सुबह ऑफिस में आकर बवाल काट दिए कि तुम लोग बिकाऊ पत्रकार हो। तुम लोगो को जनता की परेशानी दिखाई नहीं देती है, इसीलिए तुम लोग जनता की समस्याओं को नहीं दिखाते हो। जनता परेशान हाल है मगर पत्रकारिता जो कभी एक “मिशन” हुआ करती थी, अब “पेशा” बनकर बिकाऊ हो चुकी है। हम बहुत समझाया मगर काका है कि मानने को तैयार ही नहीं है। कहे पड़े थे कि तुम लोग बिकाऊ पत्रकार हो। काका को शांत करवाने के लिए एक नहीं 2-2 रजनीगंधा खर्चा हो गया। हम तो सोचा था कि “मुंह में रजनीगंधा और कदमो में दुनिया” लेकर काका शांत हो जायेंगे। मगर काका थे कि 2-2 रजनीगंधा खा गये फिर भी शांत नहीं हुए और लगातार हमे “सौतन की सहेली” वाला ताना मारे पड़े रहे।
आखिर में हम काका से कहा कि काका तुम ही बताओ हम कौन सी जनता की समस्या नहीं उठाते है? इतनी देर में पहली बार काका ने बोला नहीं बल्कि फरमाया कि “काली महल से लेकर सराय फाटक तक सड़क बहुते बुरी हो चुकी है, तुमका नहीं दिखाई दी का।” हमने कहा कि काका हम पहले खबर लिख चुके है और इतनी बुरी सड़क तो नही होगी जितना आप तव्वा रहे है। काका बोले कि चल तुमका दिखाते है। अगर मै गलत हुआ तो फिर कभी तुमको परेशान नही करूँगा, मगर मै सही निकला तो 500 रुपया लूँगा। मुझे काका की शर्त बहुत सस्ती लगी और मैने मंजूर कर डाला क्योकि इसी बहाने काका की रोज़ की भसड से फुर्सत मिल जाएगी। नगर आयुक्त साहब सच में हम बहुत खुश हुए कि आज तो काका के रोज़-रोज़ के बवाल से छुट्टी मिलेगी।
हम काका को गाडी पर बैठाला और निकल पड़े। मगर, नगर आयुक्त साहब बेनियाबाग कुड़ाखाना के पास हम बहुत साफ़ बच गये, नहीं तो मुंहबल्ला गिरते और हमारा “लिम्का खुलता और रूह अफज़ा बहने लगता” मतलब कपार फुट गया होता साहब। कोई तरीके से बच बचा के हम कालीमहल पहुंचे और गड्ढो के बीच की सड़क तलाशते हुए अपना दोनों पैर बाइक से निचे उतार कर नौसिखिया जईसे कालीमहल तिराहा पार किया तब कुछ सांस में सांस आई। लगा काका से शर्त जीत लेंगे और तिराहे के पार डमरू वाले ईटे से हम होकर गुजरे। मगर 10-20 कदम में हमारी ख़ुशी काफूर हो गयी और दुबारा खड्डों के बीच हम सड़क तलाश रहे थे। ये तलाश हमको कछुवा की रफ़्तार से सराय फाटक लेकर तक लेकर पहुंची थी कि कुबड़ा की पीठ जैसी सड़क पर आखिर हमारी गाडी गिर ही पड़ी।
काका बड़े फुर्तीले है और खुद न गिरे छटक कर किनारे हो लिए और हम अपनी बाइक समेत धड़ाम से सड़क पर आ गये। जल्दी से उठकर अपने कपडे-वपड़े सही करते हुए खड़े हो गये। कसम बता रहे है नगर आयुक्त साहब बहुते जोर की चोट लगी रही। तब तक काका हमारे सामने आकर खड़े हो गये और हमसे कहे कि तुम शर्त हार चुके हो। हमारे सामने ही एक बाइक सवार युवक और भी गिरा, और उसके बाइक पर बैठे किशोर को ज़बरदस्त चोट लगी। आस-पास के दुकानदारों ने हमे बताया कि ऐसा रोज़ ही 2-4 लोगो के साथ होता रहता है। अब तो हमको इसकी आदत पड़ गयी है।
उन्होंने बताया कि सड़क की शिकायत करते-करते हमारे हाथ थक गये, मगर नगर-निगम के कान नहीं थके। क्षेत्रीय नागरिको ने कहा कि हमारा सपना था कि हम इस शहर को क्योटो सिटी जैसा देखे मगर नगर-निगम ने हमारे क्योटो सिटी के सपने को टोटो में बदल दिया। सभासद आश्वासन देते है, नगर-निगम के अधिकारी आश्वासन देते है, विपक्षी नेता आश्वासन देते है और हम इन्ही आश्वासन की तकिया लगा कर के सो जाते है। चुनाव सर पर आएगा तो यही नेता हमारे दर पर रहेंगे। “कासे कहू हाय राम” की तर्ज पर हम बुलुक-बुलुक देखा करते है और भूडुक-भूडुक लोग गिर जाते है। हम उनकी सेवा टहल कर देते है और ये सिलसिला चलता रहता है। बस इंतज़ार है कि कब नगर निगम नींद से जागे और कब ये सड़क बने।
असल में हमको भी इंतज़ार है कि इस सड़क का निर्माण कब होगा? फीता तो कटा करता है, मिठाई तो बंटा करती है, सियासत अपने वोट के खातिर चुनाव नज़दीक आने का इंतज़ार किया करती है, सड़के और गलियें बत्तीसी चियार रही है और गिरने पर लोगो के इकत्तीस ही बचेंगे इसका खतरा बना रहता है। मिलते है ब्रेक के बाद बस यही शब्द कहते हुए कि “साहब रोड बनवा दे, हम खुद गिरे है और बहुते जोर की चोंट आई है।”