कानपुर में पुलिस की पिटाई से युवक की मौत पर बोल शाहीन के लब आज़ाद है तेरे : साहब वो गरीब था न, गरीबो की कौन सुनता है
शाहीन बनारसी (इनपुट – आदिल अहमद)
कानपुर के जितेन्द्र श्रीवास्तव की मौत हो गई। महज़ अपनी ज़िन्दगी के 25 सावन देखने वाले जितेन्द्र के जीवन में ऐसा पतझड़ आया कि सिर्फ हरियाली ही नहीं बल्कि उसकी ज़िन्दगी भी खत्म हो गई। जितेन्द्र पर कल्याणपुर पुलिस को शक था कि उसने चोरी किया है। बस फिर क्या था? जितेन्द्र को थाने बुलाया जाता है और पूछताछ के नाम पर उसकी जमकर कुटाई किया जाता है। आखिर में यही मार उसकी ज़िन्दगी को लील जाती है। जितेन्द्र की मौत के बाद सड़क पर लाश रखकर परिजन रोते-बिलखते रहे।
इस दरमियान वहां मौजूद मीडियाकर्मी के सामने परिजनों ने जितेन्द्र के कपडे उतार कर मीडियाकर्मियों को भी दिखाया। जिस्म पर इतने लाठियों के निशान थे कि गिनना मुश्किल था। पीठ पर खून के जमे हुए थक्के बता रहे थे कि पुलिस की लाठियों में कितना जोर था। एक अकेले जितेन्द्र पर थाने के न जाने कितने “बहादुर” सिपाहियों और दरोगाओ ने लाठिए चटकाई होंगी। जितेन्द्र की लाश सड़क पर मुंह से तो कुछ नहीं बोल पा रही थी मगर उसके जिस्म पर पड़े ज़ख्म चीख-चीख कर इस बात को बयान कर रहे थे कि उसके साथ पूरी बहादुरी दिखाई गई और बहादुरी दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।
परिजनो की माने तो जितेन्द्र को इतना मारा गया कि वह थाने पर ही मरणासन्न स्थिति में पहुँच गया। मगर पुलिस वाले भी ऐसे ही पुलिस वाले थोड़ी न बने। पढ़-लिख कर परीक्षा दिया, तब कही जाकर पुलिस वाले बने है। उस पर से बाकी अनुभव विभाग ने खुद दिलवा दिया। ऐसी स्थिति में जितेन्द्र को देख उन्होंने तुरंत परिजनों को फोन किया और उनकी 2-3 पीड़ियो पर अहसान करते हुए जितेन्द्र को छोड़ देने की बात कही। परिजन बताते है कि मरणासन्न पड़े जितेन्द्र को एक पुलिस वाला लात मार कर उठाता है। अपने पैर पर खड़े होने लायक न बचा। जितेन्द्र को परिजन किसी तरीके से थाने से बाहर लेकर आते है। दर्द से करह रहे और बेदम हुए जितेन्द्र को घर वाले अस्पताल लेकर जाते है मगर जितेन्द्र की हिम्मत और साँसे रास्ते में ही टूट जाती है।
जितेन्द्र के कपडे उतार कर उसके परिजन जब मीडिया के सामने दिखाते है तो जितेन्द्र उस वक्त अपनी ज़बान से पुलिस की बर्बरता नहीं बता पाता है मगर उसके ज़ख्म चीख-चीख कर इस बात का बयान करने के लिए काफी थे कि हमारा रक्षक जब भक्षक बनता है तो वह बहुत ही निर्दयी हो जाता है। प्रदेश की आर्थिक नगरी कानपूर में जितेन्द्र इस दुनिया को छोड़ कर जा चूका है। जितेन्द्र गरीब था और गरीब की आवाज़ नहीं होती। यह बात पुलिस वालो को शायद भलीभांति पता है। शायद इसीलिए जितेन्द्र के चेहरे पर पड़ती हुई हर एक लाठी इस बात की गवाह रही होगी। कौन बोलेगा? क्यों बोलेगा? ये पुलिस भी समझ रही होगी।
जितेन्द्र एक गरीब परिवार का बेटा था। वह मात्र एक संख्या रहा होगा। ज़िदा रहने पर आबादी की संख्या और मर जाने पर मृतको की संख्या। मगर शायद कानपूर कमिश्नरेट पुलिस यह बात भूल चुकी है कि “दुर्बल को न सताइए, जाकी मोटी हाय।” बेहतर पुलिसिंग के लिए लागू हुई कमिश्नरेट प्रणाली कानपुर में सवालो के घेरे पर पहले भी रही है। आज भी जो घटना हुई, वह पुलिस का क्रूर चेहरा सामने लाने के लिए काफी है। क्या होगा? कार्यवाही का आश्वाशन, जांच का वायदा, निलंबन और फिर चार दिन बाद सब पहले जैसा हो जायेगा। “चार दिन चर्चा उठेगी, डेमोक्रेसी लायेंगे, पांचवे दिन भूल कर, सब काम पर लग जायेंगे।”
“ये खैरम बाखता, सुबह होते ही सब काम पर जायेंगे।” वो गरीब था। बेशक चुनाव सर पर है तो सियासत बोलेगी ही। मगर कुछ दिनों का निलंबन, जांच, कार्यवाही, आश्वाशन यही चलेगा और आखिर में 2-4 दिन में लोग भूल जायेंगे। सियासत हो सकता है तेज़ हो तो कुछ और दिन जितेन्द्र की मौत को याद रखा जाये। मगर क्या कोई उस परिवार के जवान बेटे की लाश को कंधे पर उठाने के दर्द को कम कर पायेगा। आपको लग रहा होगा कि हम बहुत ही ज्यादा कड़े लफ्जों का इस्तेमाल कर रहे है। बेशक आप वीडियो में जितेन्द्र की लाश के ज़ख्मो को देख कर कोई मुलायम लफ्ज़ हमको बता सकते है। चोटों के निशान से जिस्म नीला पड़ा है। लेख लिखे जाने तक कोई भी पुलिस कार्यवाही सामने नहीं आई है।