मियां वो दिन लद गये, अब ये हिमाकत कौन करता है ? वो क्या कहते थे उसको ? हाँ मुहब्बत….! कौन करता है ?
फारुख हुसैन
यू तो न जाने कितनों सदियों से लोग एक दूसरे के सहायता करते नजर आ रहे हैं। कभी किसी को परेशानी में देखा नहीं कि उसकी सहायता करने के लिये लोग भारी संख्या में पहुंच जाते थे और उस पीड़ित शख्स की समस्या को हल करने के बाद ही लोगों को चैन मिलता था। फिर चाहें पीड़ित किसी भी धर्म मजहब का हो किसी को कुछ लेना देना नहीं होता था। वो तो सिर्फ अपने-अपने धर्म का पालन करते थे, क्योंकि उनको बताया जाता था कि किसी भी धर्मग्रन्थों में ये नहीं लिखा है कि वक्त पड़ने पर किसी की सहायता न करें या फिर वो किसी गैर मजहब का हो तो उससे दूर रहें बात न करें या फिर उसकी बुराई करें।
क्यूंकि उस समय हर ओर शिक्षा का अभाव था लोग सीधे-साधे थे। लोग केवल मेहनतकश थे। उनको बस जी तोड़ मेहनत करके अपना कार्य करना, परिवार का भरण पोषण करना और जरूरत पड़ने पर किसी के काम आना ही आता था। राजनीति क्या होती है? सामाजिक कार्य क्या होता है? उनको नहीं मालूम था। वो तो बस भेड़ की चाल चलते थे कि देखा कोई मुसीबत में है तो दौड़ पड़े एक दौड़ा तो दूसरा भी दौड़ पड़ा। स्वार्थ क्या होता है वो तो शायद उनका पता तक न जानते थे। वो तो बस तन मन धन से यानी कि जो जिससे संभव हो पाता था, वो करते थे।
कुछ इस तरह की बातों को लेकर न जाने कितनी ऐसे कवि, साहित्यकार सहित अन्य लेखकार लोग हुए हैं, जो इन बातों कों प्रमुखता से आगे लाते थे। साहित्य से लेकर कविताओं, गजलों, लेखों के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाता था कि यदि आपने मनुष्य के रूप में जन्म लिया है तो आप मनुष्य होने का फर्ज अदा करें। लोगों की निस्वार्थ सहायता करें। परंतु इन सबसे अलग हटकर कुछ ऐसी कलाक्रति भी की जाती थी, जिसमें भी इन बातों को दर्शाया जाता था। जो आज भी हमको कहीं न कहीं देखने को मिल जाती है।
कहते है कि “मियाँ वो दिन लद गए अब ये हिमाकत कौन करता है ? वो किया कहते थे उसको हाँ मुहब्बत कौन करता है। कोई जन्नत का है तालिब तो कोई गम से है परेशाँ, गरज सजदे कराती है, इबादत कौन करता है।” धीरे-धीरे समय ने करवट बदली, शिक्षा का प्रचार प्रसार बढ़ा। पढ़ लिख कर कुछ लोग बाबूजी बन गये और फिर उन्होने अपना दिमाग लगाना शुरू किया और फिर शुरू हुआ राजनीतिक खेल देश में राजनीतिक ने अपना स्वरूप फैलाना शुरू किया। देश में दंगे फसाद होना शुरू हो गये। लोगों को धर्म के नाम पर आपस में ही लड़ना सिखाया गया। तुम हिंदू, तुम मुस्लिम, तुम सिख, तुम इसाई और भी न जाने कितने मजहबों और जातियों में लोगों को बांटा जाने लगा। लोग धर्म जाति के नाम पर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये। जहां कभी बहू-बेटियों की इज्ज़त पर लोग आंच नहीं आने देना चाहते थे। वहीं अब उनको बीच चौराहों पर बेआबरू किया जाने लगा और फिर राजनीतिज्ञ इन सब बातों को मुद्दा बनाकर अपनी रोटियां सेंकने लगे।
दंगे में कोई मारा गया तो उस हालात के मारे को मुट्ठी भर रूपये, चार रोटियां या फिर कुछ कपड़े देने पहुंच गये। किसी की इज्जत से खेला गया तो उसको सात्वना देने पहुंच गये और फिर उनके साथ मुस्कुराते हुए फोटों खिचवाकर अखबारों के पहले प्रष्ठ पर चमकने लगे और फिर राजनीति में सुपर स्टार बनकर चमकने लगे। धीरे-धीरे सेवाभाव का मतलब ही बदलना शुरू हो गया। जब से हमने आधुनिकता में कदम रखा तो सेवा भाव के मायने बिल्कुल बदल गये। आधुनिकता ने अपनी जड़े गहराई से जमानी और फैलानी शुरू कर दी और फिर अब समय आया है समार्ट फोन का, जिसमें फेसबुक, व्हाटस एप, ट्वीटर सहित न जाने कितनी ऐसे एप्स है, जिनसे सीधे लोगों से स॔म्पर्क किया जा सकता है। अपनी बातें, अपने संदेश लोगों तक पहुचायें जा सकते है, जिसे हमने सोशल मीडिया या फिर यू कहें सोशल नेटवर्क का नाम दिया गया और फिर तो जैसे पूरे देश में सहायता करने वालों में लोगों की बाढ़ सी आ गयी। देश में आनन फानन में न जाने कितनी समाजिक संस्थायें, मंच और सामज सेवी आपरूप पैदा हो गये, जो लोगों की सहायता करने के लिये आतुर हो गये। रेलवे स्टेशन, बस स्टाप यहां तक कि लोगों के घरों में जाकर भी यह समाजसेवी सहायता करने लगे। किसी भी प्रकार की सहायता के नाम पर किया, बस धड़ाधड़ अपने स्मार्टफोन से फोटों खिचवाने लगे और फिर वह फोटों हर सोशल नेटवर्क पर शेयर किया जाने लगा और लोगों के जज्बातों से खिलवाड़ किया जाने लगा।
इन सब के बीच में ही कुछ लोग अपनी राजनीति चमकाने लगे और एक बार फिर राजनीतिक के नये-नये चेहरे उभर कर सामने आने लगे, जो इस तरह की हरकतें करते नजर आने लगे। जिनका कार्य बड़े पैमाने पर तस्करी करना, रात में लोगों को लूटना और दिन में समाजसेवी बनना। अब समाजसेवी रूपी राजनीति घुसपैठ कुछ ज्यादा ही दिखाई देने लगी है। जिले की हर तहसीलों में ऐसे समाजसेवको की भारी भीड़ दिखाई देने लगी है। हाल यह हो गया है कि गली गली मोहल्लो में ऐसे समाजसेवी कुकरमुत्तों की तरह पनप रहें हैं और ये यदि किसी को ऐसे समाजसेवी कुछ पुराने कपड़े या फिर एक ग्लास पानी या फिर किसी भूखे को कुछ खिला भी देते हैं, तो फिर तुंरत ही उस मजबूर की फोटो खींचकर चंद लाइनें लिखकर उसको तमाशाबीन बना कर उसके जज्बातों से खिलवाड़ करते हैं। जो बेचारा कुछ बोल भी नहीं पाता। सबसे शर्मनाक बात यह कि यदि किसी के साथ कोई दुर्घटना हो जाती है, तो ऐसे लोग उसको अस्पताल पहुंचाने के एवज में भी ऐसा कार्य करने से बाज नहीं आते। इस सब बातों का सीधा असर से लोगों पर पड़ रहा है जो वास्तविक समाजसेवी है। जो निस्वार्थ लोगों की सहायता करते हैं, जिनकों अब केवल व्यंग्यतामक दौर से गुजर पड़ रहा है और वो इसलियें हीन भावना का शिकार होते जा रहें हैं।
कुछ ऐसे बड़े राजनीतिज्ञ भी फ्रंट पेज पर हैं उनका हाल भी कुछ ऐसा ही है जो नगर के विकास कार्यों पर ध्यान देने के बजाये इस तरह के कार्यों में ज्यादा दिलचस्पी लेते दिखाई दे रहें हैं। किसी के घर किसी की मौत हो जाये, कोई बिमार हो जाये तो वो वहां अपने चेलेचापड़ो को साथ दौड़कर पहुंच जाते हैं और हजार दो हजार देकर उनके साथ फोटो खिचवाकर तुंरत शोसल मीडिया में डलवाते हैं। पर॔तु इनका कुछ अलग थलग फंडा भी है। ये कुछ अखबारों के संवाददाताओं को दारू मुर्गे की पार्टी या फिर उनको विज्ञापन रूपी भीख देकर अखबारों की सुर्खियां भी बनते नज़र आ रहें हैं। यदि विकास की बात करें तो हाल यह है कि नगर में सड़को की हालत बद से बद्तर नजर आ रही हैं। गावों में अभी भी विकास छू कर भी नहीं गुजर रहा है।
दूसरे समाजसेवी कुछ इस तरह सामने निकल कर आये हैं, जो प्रशासन और शासन के नुमाइन्दों का खास ध्यान रख रहें हैं। जो हार पहनाकर, बड़े बड़े गिफ्ट देकर और एक आध लोगों की दिखावा रूपी सहायता कर समाससेवी का चोला ओढ़े हुए हैं। जो अपने चोचलो के संबधों की आड़ में सारे गैर कानूनी कार्य करते हैं। मगर उनके चोचले ही है जो उनका भौकाल बना कर रखे है। जिधर देखे उधर किसी बड़े ओहदे के पुलिस अधिकारी को एक 100 रुपया का बुके थमा कर खुद का फोटो बुके थमता हुआ खिचवा कर, व्हाट्सअप की डीपी पर लगाना ताकि लोग उनकी फोटो अमुक अधिकारी के साथ देखे तो उनकी दलाली और पत्ती उनके फर्जी भौकाल में पक्की होती। जनता तो यही देखकर सोचेगी कि फलनवा अधिकारी के बहुत करीबी है। समझ नही आता उन अधिकारियो को भी कि दो टके के ये लोग उनके फोटो को कितना बेचेगे। क्या 100 रुपया के बुके के महंगे है अधिकारी।
अब कुछ प्रशासन के नुमाइन्दों को भी कुछ ऐसा बुखार चढ़ता दिखाई देने लगा है और इस तरह ही कुछ साहित्य सेवा में समर्पित लोग भी इससे अछूते नहीं रहे उन्होने भी इसमें अपनी शिनाख्त बना ली जो साहित्य सेवा करते करते कब राजनीतिज्ञ बन गये पता ही नहीं चला ।फिलहाल जिस तेजी से ये समाजसेवी पनप रहें हैं उस पर जिम्मेदारों को ध्यान देना जरूरी हो गया है नहीं तो एक दिन ऐसा समय आयेगा जब देश अंदर से खोखला होता जायेगा लोगों के जज्बात पूरी तरह से मर जायेगें लोगों में निस्वार्थ सहायता करने भावना कहीं दम तोड़ देगी और बस देश में फिर क्या बचेगा ? समाज या फिर समाजसेवी।
नोट : इस लेख के लेखक फारुख हुसैन लखीमपुर खीरी जनपद के एक जाने माने लेखक और साहित्यकार है। सम सामायिक घटनाओं पर बेबाकी से खुद के विचार प्रकट करने वाले फारुख हुसैन को लोग मुहब्बत से अभिव्यक्ति भी कहते है।