बेरोज़गारी की बनारसी बुनकरों पर मार: कभी दस हैण्डलूम का मालिक था सरफ़राज़, अब दाल रोटी चलाने के लिए हो गया है “बेरोजगार बुनकर चाय वाला”
तारिक़ आज़मी
वाराणसी। बेरोज़गारी की सबसे अधिक मार अगर किसी वर्ग को वाराणसी में पड़ी है तो वह है बुनकर समाज। कहने को तो कई तंजीमे बुनकर की हिफाज़त के नाम पर अपना वर्चस्व कायम रखे है। बावनी से लेकर पांचो तक के सरदार है। मगर बेहाल, बेरोजगार बुनकर का कोई पुरसाहाल नही है। बुनकरों की ज़िन्दगी की बदहाली की दास्तान चल ही रही थी कि पहले तालाबंदी ने उनको बदहाल कर डाला और फिर बचा कूचा भगोड़े गद्दिदारो ने पूरा कर डाला।
ऐसे ही एक बुनकर है सरफ़राज़ मियाँ। सरफ़राज़ के घर पर कभी दस करघा हुआ करता था। काम भी दमदार चलता था। कई कारीगर काम करते थे। फिर वक्त ने करवट लिया। मंदी की मार से सरफ़राज़ बेहाल होने लगे। घर में रखी पूंजी से कारोबार किसी तरह चल रहा था। मगर गद्दीदारो के भगोड़े होने पर उनकी पूंजी भी टूट गई। फिर आ गया ज़ालिम कोरोना। कोरोना ने जान तो नही लिया मगर दम निकाल डाली। घर में खाने के लाले पड़ने लगे साथ ही कामगारों के भी घर का ख्याल रखना था।
आखिर सरफ़राज़ मियाँ ने अपने सभी करघे बेच डाले। सब कारीगरों का हिसाब फाइनल किया और सबसे हाथ जोड़ कर आगे काम नही होने की बात कहकर घर बैठ गए। अब खाली जेब और बेकारी से घर की रसोई में चूल्हे पर डांस करती पतीली ने और भी बदहाल कर डाला। आखिर कुछ तो रोज़गार चाहिए जिससे ज़िन्दगी की गाडी चल सके। रोज़ का खर्च, बाल बच्चे और फिर पेट की ज़ालिम आग जो सब कुछ ख़ाक करने को तैयार थे। घर में दानो की दिक्कत सामने आने लगी। जेब में इतना भी पैसा नही था कि कोई कारोबार करने की सोच सके।
सरफ़राज़ मियाँ ने अपने छोटे भाई जिसकी उम्र महज़ 16 साल है से कभी अपनी दिक्कत नही बताया था। मगर साकिब 16 साल की उम्र में ही समझदार हो चूका था। उनसे अपने डिजिटल वालेट में कुछ रकम अपने भाई से मिली हुई जुटा लिया था। पेटीएम पर उसके 6 हजार था। समझदार हो चुके साकिब ने अपने भाई की मदद का सोचा मगर दिक्कत ये थी कि कैसे पेटीएम से कैश निकाले। कोई बैंक अकाउंट नही था। आखिर उसने एक दोस्त का सहारा लिया और अपने पेटीएम से 6 हज़ार रुपया उसको ट्रांसफर कर उससे 5500 रुपया लिया और अपने भाई सरफराज के हाथ में रखते हुवे कहा भाई घर खर्च में कुछ काम आ जायेगा।
सरफ़राज़ बताते है कि ये वह वक्त थे कि हमारी आँखों में आंसू भर आया था। मेरे भाई साकिब की मासूमियत अपनी गरीबी छीन चुकी थी। आखिर मेरे पास भी कोई चारा नही था। हमने इन पैसो से कुछ ऐसा करने की सोचा कि ज़िन्दगी में रोज़ के खर्च चल सके। फिर सरफ़राज़ मियाँ ने एक केतली खरीदी। कुछ दूध, चीनी और चायपत्ती के साथ सिगरेट और पान मसाला खरीदा। थोड़े पैसो से घर में खाना बनाने के लिए राशन ला दिया। दूसरी सुबह होती है और घर के अन्दर ही सरफ़राज़ चाय की दूकान खोल लेते है।
यहाँ भी सरफ़राज़ का मासूम भाई साकिब अपने बड़े भाई के कंधे से कन्धा मिला कर खड़ा हो जाता है। घर के पतले से गलियारे में चलती चाय की दूकान से चाय केतली में भर कर साकिब लोगो को मोहल्ले में घूम घूम कर चाय बेचना शुरू कर देता है। चाय के टेस्ट से लोगो को सरफ़राज़ की चाय पसंद आती है। आखिर घर के अन्दर चलती दूकान चल पड़ती है और ग्राहक आने भी शुरू हो जाते है। पुरे हसनपुरा (कोइला बाज़ार के पास का मोहल्ला) इस चाय की दूकान का ग्राहक बन बैठा है। साकिब ने अपने फ़ोन का इस्तेमाल होम डिलेवरी के लिए भी करना शुरू कर दिया।
दोनों भाई दूकान चला बैठे। सरफ़राज़ मियाँ इस मुताल्लिक बात करने पर रूआसे हो जाते है। कहते है कि एक वक्त था कि दस लोग मेरे लिए काम करते थे। आज अल्लाह ने ये भी वक्त दिखाया है कि चाय बेच कर ज़िन्दगी चल रही है। छोटा भाई साकिब अपना बचपना खो चूका है। बचपन के उसके खेलने खाने की उम्र में ही वह समझदारो के तरह बाते करता है। अफ़सोस होता है कि मेरी गरीबी ने मेरे छोटे भाई का बचपन छीन लिया है। सुबह 6 बजे से हम दोनों भाई इस दूकान को खोलते है और रात के 11 बजे तक हम मेहनत करते है। अल्लाह का शुक्र है कि अब कुछ सहूलियत हो गई है।
साकिब से हमने जब बात किया तो मासूम मुस्कराहट के साथ बोला “भाई ज़िन्दगी हर रंग दिखा देती है। ये भी एक रंग है। मज़ा आ रहा है। पहले हम दुकानों से चाय खरीदते थे आज खुद बेच रहे है। मगर मैं खुद को खुशकिस्मत समझता हु कि अपने बड़े भाई के काम आ रहा हु। रात को वक्त मिलता है तो थोडा बहुत पढ़ लेता हु। सब मिलाकर दिल से खुश हु।” साकिब ने बड़े ही दार्शनिक अंदाज़ में कहा कि “भाई गरीब छोटी छोटी बातो में ही अपनी खुशियों को बटोर लेता है। हम लोग भी यही करते है। मस्त ज़िन्दगी कट रही है। कभी भी आपको अपने ऑफिस में चाय मंगवाना होगा तो मुझे एक फोन कर दीजियेगा।” साकिब के चेहरे पर मुस्कराहट थी, मगर हमारे होंठो की हंसी गायब थी। बड़े ही संजीदा तरीके से हमारे हाथ साकिब के कंधो पर पड़ते है और सिर्फ एक लफ्ज़ निकलता है कि खुश रहो बेटा हमेशा।
चलते वक्त साकिब ने हमसे कहा, भाई एक बैनर बनवा कर लगवाना चाहता हु दूकान के लिए। कोई बढ़िया सा नाम बताये। मेरे पास लफ्जों की तंगी थी। मेरा दिल ग़मगीन था क्योकि इस परिवार को मैं अपने बचपन से जानता हु। काफी समृद्ध परिवार होता था। मेरी हालत शायद हमारे दोस्त जिनको मुहब्बत से मैं “बब्लू चा” कहता हु और वो भी मुहब्बत से मुझको “तारिक़ चा” कहकर संबोधित करते है समझ रहे थे। उन्होंने नाम साकिब को सुझाया। नाम दिया “बेरोजगार बुनकर चाय वाला”। साकिब ने मुझसे कहा भाई ठीक रहेगा नाम ? मैं कुछ बोल नही पाया सिर्फ मुस्कराहट के साथ हाँ में सर हिला दिया। साकिब को अपनी दूकान का नया नाम मिल गया था। हसता हुआ तो अपने दूकान के तरफ अपनी केतली लेकर जा चूका था।
मगर मेरे समझ में नही आ रहा था कि साकिब से बात करने के लिए अपने होंठो पर जो मुस्कराहट मैंने रखी थी उसको क्या नाम दू? शायद इसको मक्कारी का नाम आप दे सकते है। क्योकि इंसान हु न, इस परिवार का ये हाल देख कर दिल तो रो रहा था। इस परिवार का पुराना वक्त मेरे आँखों में किसी फिल्म की तरह चल रहा था। वही कार्नर में वर्त्तमान वक्त भी चल रहा था। बेशक लफ्ज़ तंग पड़ेगे अपने दिल के इस अहसास को बताने के लिए। “बेरोजगार बुनकर चाय वाला”।