शहादत-ए-कर्बला: कर्बला के मैदान में हिन्दुस्तान के इस राजा ने भी किया था शिरकत, जानकर खुद के हिन्दुस्तानी होने पर होगा फक्र, जाने कौन है “हुसैनी ब्राह्मण”

तारिक़ आज़मी

डेस्क: “हुसैनी ब्राह्मण” शब्द को अपने सुना ज़रूर होगा। बेशक एक ख्याल दिमाग में ज़रूर कौंध जाता है कि कौन है ये “हुसैनी ब्राह्मण”। ब्राह्मण समुदाय में हुसैनी ब्राह्मण का अपना ही खित्ता है। इनके यहाँ मुहर्रम के महीने में शहादतनामा और नौहा ख्वानी होती है। यह समुदाय राहिब दत्त के कुनबे से चली है जो एक हिन्दुस्तानी बादशाह हुआ करते थे। हुसैनी ब्राह्मण एक मोहयाल समुदाय है जिसका हिंदू और इस्लाम दोनों से संबंध है। असल में कुछ ऐसे भी हिंदू हैं जो पहचान से तो हिंदू होते हैं लेकिन वह कोई भी हिंदू परंपराओं का पालन नहीं करते करते हैं।  इन्हीं लोगों में से आगे चलकर मोहयाल नाम का एक संप्रदाय बन जाता है। मोहयाल समुदाय पहचान से हिंदू है, हालांकि, हिंदू परंपरा के अनुरूप, उन्होंने कोई भी इंडिक या हिंदुस्तानी परंपरा नहीं अपनाई है। शहादत-ए-कर्बला के बाद इनको हुसैनी ब्राह्मण कहा जाता है।

माथे पर तिलक, गले में जनेऊ और ललाट पर तेज़, दिमाग में गुस्सा। दौरान शहादत-ए-कर्बला के बाद राजा राहिब दत्त ने यज़ीदी फौजों को तबाह कर डाला था। रवायत (मान्यता) है कि कर्बला में जब राजा राहिब दत्त अपनी फौजों के साथ पहुचे और उन्हें कर्बला की शहादत की जानकारी मिली तो ग़मजदा हुवे कि वह अपनी तलवार से खुद की गर्दन कलम (काटने) जा रहे थे। उनका कहना था कि, “जिसकी जान बचाने आए थे वही नहीं बचा तो हम जीकर क्या करेंगे!” इमाम के चाहने वाले वीर योद्धा जनाबे अमीर मुख़्तार ने आकर उन्हें ऐसा करने से रोका और इसके बाद राहिब दत्त ने यज़ीदी फौजों को तहस नहस कर डाला।

हिन्दुस्तानी राजा राहिब दत्त मोह्याली ब्राह्मण थे। मान्यताओं के मुताबिक राहिब सिद्ध दत्त यूं तो एक सुखी राजा थे पर उनकी कोई औलाद नहीं थी। उन्होंने जब इमाम हुसैन का नाम सुना तो वो उनके पास गए। उन्होंने कहा, ‘ इमाम साहब मुझे औलाद चाहिए, अगर आप ईश्वर से दुआ करेंगे तो मेरी पिता बनने की तमन्ना पूरी हो जाएगी’। इस पर इमाम हुसैन ने जवाब दिया कि उनकी किस्मत में औलाद नहीं है। ये सुनकर दत्त काफी दुखी हुए और रोने लगे। राहिब दत्त की ये उदासी इमाम हुसैन से देखी नहीं गई। इमाम हुसैन ने राहिब दत्त के लिए अल्लाह से दुआ की। जिसके बाद राहिब दत्त सात बेटों के पिता बने। मान्यता है शहादत-ए-कर्बला के बाद याज़िदियो से बदला लेते हुवे राहिब दत्त के सभी 7 बेटे भी शहीद हो गये।

“दर-ए-हुसैन पर मिलते हैं हर ख़याल के लोग, ये इत्तेहाद का मरकज़ है आदमी के लिए” कर्बला की जंग इंसानी तावारीख़ की बहुत जरूरी घटना है। ये महज जंग नहीं बल्कि जिंदगी के कई पहलुओं की लड़ाई भी थी। इस लड़ाई की बुनियाद तो हज़रत मुहम्मद की वफात के बाद रखी जा चुकी थी। हजरत इमाम अली का ख़लीफ़ा बनना दूसरे खेमे के लोगों को पसंद नहीं था। कई लड़ाइयां हुईं। अली को शहीद कर दिया गया। बाद में इमाम हसन इब्न अली ख़लीफ़ा बने। उनको भी ज़हर खिलाकर शहीद कर दिया गया।

हसन के शहादत के बाद यजीद ने खुद को वहां का खलीफा घोषित कर दिया। यजीद एक स्वयंभू खलीफा था और ज़ालिम शख्स था। जिसके ज़ुल्म की बानगी कर्बला में देखी गई है। यजीद एक बेहद ही जालिम और तानाशाही किस्म का था। यज़ीद जानता था कि जब तक हुसैन से बयत नही करवा लेगा उसका वर्चस्व नही बनेगा। वह चाहता था कि हुसैन उसके साथ हो जाएं, वो जानता था अगर हुसैन उसके साथ आ गए तो सारा आलम-ए-इस्लाम उसकी मुट्ठी में होगा। अपनी इस ख्वाहिश के बाद उसने इमाम हुसैन पर लाखो दबाव बनाये। मगर कामयाबी हासिल नही हुई। आखिर ज़ालिम यज़ीद ने हुसैन के क़त्ल का मंसूबा पाल लिया था।

दूसरी तरफ हालात काफी तनावपूर्ण हो गये थे। इमाम हुसैन हज को जाने वाले थे। मगर हालात जिस तरीके से जंग के होते जा रहे थे वह मुनासिब नही था। वह मक्का के सरज़मीन पर कोई खुखाराबा नही चाहते थे। तारीख़ चार मई, 680 ईसवी को इमाम हुसैन मदीने में अपना घर छोड़कर शहर मक्का पहुंचे, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, फिर इमाम हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कुफा की तरफ काफिला लेकर बढे। कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई, जहां उन्हें शहीद कर दिया गया।

यहाँ यजीद ने इमाम हुसैन पर दबाव बनाने के लिए पानी पर पहरा लगा दिया था और हुसैनी खेमे को पानी न देने का हुक्म दे दिया था। मान्यता है कि इमाम हुसैन ने एक इस दरमियान दो ख़त लिखा था। जिसमे एक ख़त उन्होंने हिन्दुस्तान के राजा राहिल दत्त को लिखा था। राहिल दत्त को जैसे ही इसकी जानकारी मिलती है वह अपनी फ़ौज को लेकर अपने सभी 7 बेटो के साथ कर्बला को निकल पड़ते है। उनकी फ़ौज कही खेमा नही डाला रही थी और उसे कर्बला पहुचने की जल्दी थी। मगर फिर भी काफी देर हो गई और कर्बला पहुचते पहुचते इमाम हुसैन और उनके कुनबे की शहादत हो चुकी थी तथा यजीदी सपह सालार इब्ने ज़ियाद इमाम हुसैन का सर लेकर कर्बला के मैदान से निकल पडा था। राजा राहिल दत्त इस मंज़र को देख इतने ग़मजदा हो गये थे कि वह अपना सर खुद की तलवार से कलम करने वाले थे तभी जनाब-ए-अमीर मुख़्तार ने अकार उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

मान्यता है कि इसके बाद राहिल दत्त और उनकी फौजों ने जलाल में आकर रास्ते से ही इब्ने ज़ियाद से इमाम हुसैन का सर छीन लिया था और लेकर अपने खेमे तक आ गये। इसके बाद यजीदी फौजे और उसका सिपहसालार इब्ने ज़ियाद मिन्नतें करने लगा और हुसैन का सर मांगने लगा। मान्यता है कि राहिल दत्त ने एक एक कर अपने सभी 7 बेटो के सर इब्ने ज़ियाद को यह कह कर दे दिया कि ये हुसैन का सर है। आखिर राहिल दत्त और उनकी फौजों ने इब्ने ज़ियाद के किले पर कब्ज़ा कर लिया और किले को ही पूरा ज़मिदोज़ कर दिया गया। हुसैन के क़त्ल का बदला राहिल दत्त ने लिया और इस दरिमियाँ कई मोहयाली सैनिकों ने वीरगति को प्राप्त किया। हक और बातिल की इस लड़ाई में राहिल दत्त हक़ के साथ ऐसे खड़े हुवे कि उन्होंने अपने 7 बेटो की जान भी कुर्बान कर दिया।

बाद कुछ मोहयाली सैनिक वहीं बस गए और बाक़ी अपने वतन हिंदुस्तान वापस लौट आए। इन वीर मोहयाली सैनिकों ने कर्बला में जहां पड़ाव डाला था उस जगह को ‘हिंदिया’ कहते हैं। इतिहास इन वीर मोहयाल ब्राह्मणों को ‘हुसैनी ब्राह्मण’ के नाम से जानता है। इस कुर्बानी को याद रखने के लिए हुसैनी ब्राह्मण मोहर्रम के दिनों में अपने घरो में दर्जनों नौहे पढ़ते हैं। नोहा का मतलब कर्बला की जंग में शहीद हुए लोगों को याद करना होता है। बताया जाता है कि सुनील दत्त भी हुसैनी ब्राह्मण थे। उनके अलावा ऊर्दू लेखक कश्मीरी लाल जाकिर, साबिर दत्त और नंदकिशोर विक्रम हुसैनी ब्राह्मण समुदाय से ताल्लुक रखते है।

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