तवारीख-ए-दालमंडी: जंग-ए-आज़ादी में इस इलाके की रक्काशाओ ने भी दिया था अपना योगदान, आज लोग नाम तक नही जानते है
तारिक़ आज़मी
शहर बनारस ने जंग-ए-आज़ादी में अपना बड़ा योगदान दिया है। ये महज़ इत्तेफाक ही कहा जायेगा कि आज शहर बनारस को जंग-ए-आज़ादी में अपनी तवारीख याद करवाना पड़ता है। जबकि हकीकत ये है कि अगर पुराने किताबो पर नज़र दौडाये तो यहाँ के हर एक गली ने आज़ादी का परचम उठाया था। शहर बनारस के आज़ादी के परवानो के नाम आपको काफी याद होंगे। आज हम आपको ऐसे आज़ादी के मस्तानो के बारे में बताते है जिनको लोग भूल चुके है। शहर बनारस के चौक थाना क्षेत्र के दालमंडी की तवारीखो को तलाशने में थोडा वक्त तो लगा मगर तवारीख काफी रोशन मिली। वर्ष 1930 जब दारुल उलूमो पर अंग्रेजो ने अपनी पैनी नज़र रख रखा था और किसी तरीके के पैगामो को पहुचाने में दिक्कत होती थी तब ऐसे माहोल में सम्वदिया शुरू हुई थी।
अब सम्वदिया के श्रोतो को देखे तो अधिकतर कोदो मण्डियो और अनाज की मंडियों से ही ये सम्वदिया चलती थी। सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए इस तरीके का इस्तेमाल दालमंडी के निकट कोदई चौकी से शुरू होने की जानकारी हासिल होती है। बात जब जंग-ए-आज़ादी की चले तो दालमंडी की रक्काशाओ के योगदान को भूल जाना उनके बलिदान के साथ बेईमानी होगी। ऐसी ही रक्काशाओ में एक थी रसूलन बी। रक्काशाओ के योगदान से पहले हम एक बात साफ़ करना चाहते है कि जिस हिकारत से ये नाम लिया जाता है वैसे हकीर किरदार नही हुआ करते थे।
दरअसल, ये वह वक्त था जब महिलाओं के नाचने गाने को बहुत अछ्छे नज़रिए से नही देखा जाता था। कोठो पर असल में गीत संगीत और तहजीब की महफिले सजती थी जहा लोग अपने मनोरंजन के लिए आते थे। रक्काशाओ को आम बोल चला की भाषा में “तवायफ” जैसे हकीर लफ्ज़ से लोग पुकार लेते है। जबकि अगर तवारीख का मुत्ता’अला करे तो कोठो पर जिस्म-फरोशी नही होती थी। वहा नाच गाने जैसी महफिले सजती थी। ये वह दौर था जब नाच गानों को अच्छी नजरो से नही देखा जाता था। साथ ही ऐसे नाच गाने की महफिले रईसों के लिए ही सजती थी। हमारा इस लफ्ज़ पर गौर करवाने का मकसद महज़ एक है कि कोठे को जितना अधिक हकीर लफ्ज़ समझा जाता है और उसका ताल्लुक जिस्म फरोशी के कारोबार से जोड़ा जाता है हकीकत में वह ऐसा नही था। दालमंडी के कोठो के बारे में मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी किताब ‘चिराग-ए-दायर’ ज़िक्र किया है। यह किताब उन्होंने बनारस घुमने के बाद लिखी थी। वही दामोदर गुप्त ने अपनी किताब ‘कूट्नीमतम’ में भी यहाँ के कोठो का ज़िक्र किया है।
बहरहाल, बात यहाँ की तवायफ यानी रक्काशाओ की है। दालमंडी के कोठो में रसूलन बी का कोठा मशहूर कोठो में एक था। जंग-ए-आज़ादी में रसूलन बी ने काफी योगदान दिए थे। रसूलन बी के कोठे पर गीत संगीत की महफ़िलो में शहर और आसपास के शहरों के अमीरजादे आते थे। साथ ही अग्रेज अफसर भी उनके संगीत के कद्रदान थे। रसूलन बी ने कई स्वतंत्रता सेनानियों को अपने यहाँ शरण दिया। अंग्रेजो से अन्दर की बाते जान कर आज़ादी के परवानो तक भी वह उनकी बातो को पहुचाती थी। यही नही आज़ादी की जंग में रसूलन बी आर्थिक मदद भी करती थी। रसूलन बी के उस्ताद शम्मू खा थे। वक्त गुज़रा और रसूलन बी आज़ादी के परवानो को शरण देती है इसकी जानकारी अंग्रेजो को हो जाती है। पुष्ट सन तो नही है हाँ मगर बताया जाता है कि 1945 के आसपास अँगरेज़ रसूलन बी को गिरफ्तार कर लेते है और उनको काफी प्रताड़ित करते है। मगर आज़ादी और मुल्क परस्तिश में रसूलन बी ने अपना मुह नही खोला। उनका कोठा खाली करवा लिया जाता है। 1947 में हमारा मुल्क आज़ाद हो जाता है। अच्छे वक्त की शुरुआत रसूलन बी की होती है और 1948 में उन्होंने मुजरा-प्रदर्शन करना बंद कर दिया और बदनाम कोठे की चौखट को पार कर एक नई दुनिया बसाया।
रसूलन बी ने एक स्थानीय बनारसी साड़ी व्यापारी के साथ अपना घर बसाया। जिसके बाद रसूलन बी के मुकद्दर में दुबारा खुशियाँ आई। 1957 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी द्वारा ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। मगर बदनसीबी ने रसूलन बी का पीछा नही छोड़ा था। वर्ष 1969 में बनारस सांप्रदायिक दंगे की आग में जल उठा। दंगों में रसूलन बाई का घर जला दिया गया। इसके बाद उनका जीवन एक कठिन पड़ाव पर आ गया, जिसका परिणाम ये हुआ कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन आकाशवाणी (महमूरगंज, बनारस) के बगल में अपनी एक चाय की दुकान खोलकर बिताए। 15 दिसंबर 1974 को आखिर रसूलन बी इस दुनिया को अलविदा कहकर चली गई।
इसी दालमंडी की एक और रक्काशा थी जद्दन बाई। कहा जाता है कि जद्दन बी की बेटी मशहूर अदाकारा नर्गिस थी। जद्दन बी को जद्दन बाई के नाम से भी पुकारा जाता था। जद्दन बी ने संगीत की शिक्षा दरगाही मिश्र और उनके सारंगी वादक बेटे गोवर्धन मिश्र से लिया था। चौक थाने के पीछे किसी जगह जद्दन बी का कोठा हुआ करता था। यह कोठा भी आज़ादी की जंग लड़ रहे क्रांतिकारियों के शरण देने वाला स्थान था। जद्दन बाई देश की स्वतंत्रता के लिए कई बार क्रांतिकारियों को अपनी महिफल में शरण दी थी।
इसी तरह मशहूर तवायफ चंदा बाई की बेटी सिद्धेश्वरी देवी जिनका कोठा वर्ष 1900 के आसपास मणिकर्णिका घाट के पास सजता था और यहीं पर उनका घर भी था आज़ादी के परवानो को शरण देता था। सिद्धेश्वरी देवी ने आजादी के कई गीत गाए। इन्होंने कला के कद्रदानों से एकत्र धन को देश की आजादी के लिए समर्पित कर दिया था। आज इन नामो को हमारी तवारीख भूल चुकी है। बेशक इनके योगदान को चाहे वह जद्दन बी का हो अथवा सिद्धेश्वरी देवी का या फिर रसूलन बी का कम नही आका जा सकता है।