गणतंत्र दिवस (यौम-ए-जम्हूरियत) की 74वी वर्षगाठ पर विशेष: आज भी “हसरत” के “ख्वाब” तो उसी पतली सड़क पर भटक रहे है जो “उन्नाव से मोहान” जाती है, पढ़े हसरत मोहानी पर विशेष लेख
तारिक़ आज़मी
आज पूरा मुल्क “यौम-ए-जम्हूरियात” यानि गणतंत्र दिवस की खुशियाँ मना रहा है। हर सु मुल्क्परास्ती के गाने और गज़ले बजती सुनाई दे रही है। संविधान और उसकी बराबरी की बाते हर एक मंच से कही जा रही है। हर सु ख़ुशी तो दिखाई दे ही रही है, ऐसा महसूस हो रहा है कि अब मुल्क में हर तरफ संविधान के तहत काम होगा। खुश मुल्क का हर एक बाशिंदा है। आज ही वह दिन है जब हमको 1950 में हमारा हमारी जम्हूरियात यानी संविधान मिला। ये वही संविधान है जिसने मुझको लिखने की आज़ादी दिलाया तो आपको पढने की आज़ादी दिया। आज संविधान को लेकर बाते करने वाले लोग शायद भूल जाते है कि उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी भी इसी संविधान ने दिया है।
जिस संविधान की आज बाते हो रही है उसी संविधान का पहला शब्द “हम भारत के लोग” है। इस “हम भारत के लोग” शब्द की परिभाषा समझने का ही तो आज वक्त है। सियासत के दिखाए हुवे गलीचो से हमको गुज़रते हुवे एक बार इसका भी ख्याल रखना होगा कि 200 साल गुलामी की ज़ंजीरो में जकड़े “हम भारत के लोग” कितनी मशक्कत से इस आज़ादी की खुली हवा तक पहुचे है। वो जिन्होंने इस आज़ादी के लिए लडाइयां लड़ी। ज़ालिम अंग्रेजो से मोर्चा लिया। उनके ज़ुल्म-ओ-सितम हस्ते हुवे बर्दाश्त किये। ताकि उनकी आने वाली नस्ले आज़ादी की हवा में साँस ले सके। आज़ादी का अहसास कर सके। मगर आज उन सबको हम भुला कर बैठे है। आज ऐसी ही एक शख्सियत से आपको रूबरू करवाता हु जिनका नाम था मौलाना हसरत मोहानी जो संविधान सभा के एक काफी महत्वपूर्ण सदस्य थे। जिनके सांझी वरासत यानी गंगा जमुनी तहजीब का ख्वाब याने सामाजिक एकता और भाईचारे का ख्वाब उन्नाव से जाती उस पतली सड़क पर भटक रहा है जो मोहान तक जाती है।
उन्नाव के छोटे से कस्वे मोहान से ताल्लुक रखने वाले मौलाना हसरत मोहानी ने जंग-ए-आज़ादी में अपनी कलम से भारतीयों को अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिये उत्साहित किया। वो एक शायर थे तो एक पत्रकार भी थे। वह एक राजनीतिज्ञ थे तो स्वतंत्रता सेनानी और साझी विरासत के मरकज़ भी थे। जिन्होंने 25 मर्तबा अपनी हयात में हज किया था तो रसखान के बाद कृष्ण की महिमा अपने लफ्जों में किया था, हर साल जन्माष्टमी पर वह मथुरा जाते थे तो मास्को से भी उनको अटूट मुहब्बत थी। मौलाना हसरत मोहानी का पूरा नाम सैय्यद फ़ज़ल-उल-हसन और उपनाम ‘हसरत’ था। जिनका जन्म 1 जनवरी 1875 को उन्नाव के मोहान गाँव में हुआ था। 13 मई 1951 में कानपुर में हसरत मोहानी ने दुनिया को अलविदा कहा था। यहाँ उनके इस दुनिया-ए-फानी से रुखसती का दिन के साथ जगह इसलिए भी लिखा ताकि नाम में तलाश-ए-मज़हब और सरहद न होने लगे।
उनके मुत्ताल्लिक मशहूर शहर मुनव्वर राणा ने अपने मुहाजिरजाने में एक शेर भी लिखा है कि “वो जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जारी है, वही हसरत के ख्वाबो को भटकता छोड़ आये है।” शायरी का शौक रखने वाले मोहानी ने उस्ताद तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी थे। हसरत से पहले औरतों को ऊंचा मकाम हासिल नहीं था। आज की शायरी में औरत को जो हमक़दम और दोस्त के रूप में देखा जाता है वह कहीं न कहीं हसरत मोहानी की कोशिशो का नतीजा है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान ही उनमें देशभक्ति की जज़्बा जगा था। 1903 में अलीगढ़ से एक किताब ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ जारी की गयी। जो अंग्रेज़ी सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ थी। 1904 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े। 1905 में उन्होंने बाल गंगाघर तिलक द्वारा चलाये गए स्वदेशी आंदोलन में भी हिस्सा लिया। स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने एक खद्दर भंडार भी खोला जो खूब चला। 1907 में उन्होंने अपनी किताब में ”मिस्र में ब्रितानियों की पॉलिसी” शीर्षक से लेख छापा। जो ब्रिटिश सरकार को बहुत खला और हसरत मोहानी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया।
हसरत मोहानी का मर्तबा जंग-ए-आज़ादी में इसी से समझ सकते है कि खुद महात्मा गांधी ने उनको महान बताया और आजादी के आंदोलन में उनकी भागीदारी की अनेक मौके पर तारीफ भी किया। गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनकी रिहाई पर खुशी जाहिर करते हुए उन्हें “पत्रकारिता जगत का सूरज कहा”। 1919 के ख़िलाफ़त आंदोलन में उन्होंने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उनकी शरीक-ए-हयात निशातुन्निसा बेगम, जो हमेशा परदे में रहती थीं, ने भी अपने शौहर के साथ आज़ादी की लड़ाई में हमकदम हो जिम्मेदारी निभाई। मौलाना हसरत मोहानी आज़ादी की लड़ाई में इस तरह घुल मिल गये थे कि उनके लिये इस राह में मिलने वाले दुख-दर्द, राहत-खुशी एक जैसे थे। 1921 में “इन्क़लाब ज़िंदाबाद” का नारा गढ़ने वाले हसरत मोहानी ही थे। इस नारे को बाद में भगत सिंह अपनाकर मोहानी साहब को मशहूर कर दिया। 1921में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
मौलाना हसरत मोहानी को बालगंगाधर तिलक और डॉ0 भीमराव अंबेडकर के क़रीबी दोस्तों में शुमार किया जाता है। बताया जाता है कि डॉ भीमराव आंबेडकर को सबसे अधिक सामाजिक सम्मान हसरत मोहानी ही देते थे यहां तक कि पवित्र रमज़ान में भी बाबा साहब मौलाना के मेहमान होते थे। 1946 में जब भारतीय संविधान सभा का गठन हुआ तो उन्हें उत्तर प्रदेश राज्य से संविधान सभा का महत्वपूर्ण सदस्य चुना गया। संविधान निर्माण के बाद जब इस पर दस्तखत करने की बारी आई तो उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि यह मजदूरों और किसानों के हक़ की पूरी रहनुमाई नही करता। किसानों और मजदूरों के हित में यह फैसला लेने वाले वे अकेले सदस्य थे। भारत विभाजन का उन्होंने खुल कर विरोध किया उनका ख्वाब था कि सरहदों और मज्हबो में मुल्क को तकसीम न किया जाए। उन्होंने इस बटवारे का इतना ही विरोध किया था कि जिन्ना जैसे लोग उनको अपना दुश्मन समझते थे। हसरत मोहानी की मजमुआ-ए-शायरी (कविता संग्रह) ‘कुलियात-ए-हसरत’ के नाम से प्रकाशित है। उनकी लिखी कुछ खास किताबें ‘कुलियात-ए-हसरत’, ‘शरहे कलामे ग़ालिब’, ‘नुकाते सुखन’, ‘मसुशाहदाते ज़िन्दां’ हैं।