हाजी उस्मान सेठ: जिसने जंग-ए-आज़ादी के लिए 7 हजार करोड़ रूपये और अपने 27 आलिशान बंगले बेच दिया, बेटे को गिरवी रख दिया, किराये के कमरे में गुज़री बाकी ज़िन्दगी, बेटो ने भी नही लिया कोई सरकारी इमदाद
तारिक़ आज़मी
आज के तारिख में कार्पोरेट घरानों पर काफी सवाल उठाये जा रहे है। एक तरीके से देखे तो सुई से लेकर जहाज़ तक का कारोबार हो या फिर अनाज से लेकर तेल और फल तक आज कार्पोरेट घरानों की निगाहों में आते जा रहे है। भारत जोड़ो यात्रा के दरमियान अपने भाषणों में राहुल गाँधी भी अडानी अम्बानी को अपने निशाने पर रखते है तो श्रोताओं की बजती तालियाँ ज़ाहिर करती है कि शायद सेठ के मुखालिफ सुनना लोगो को पसंद भी आ रहा है।
मगर एक हकीकत ये भी है कि देश की जंग-ए-आज़ादी में आर्थिक रूप से मजबूती देश के व्यापारियों ने दिया था। सबसे बड़ा अगर किसी का योगदान था तो उस समय के सबसे बड़े कारोबारी हाजी उस्मान सेठ का योगदान था, जिन्होंने जंग-ए-आज़ादी के खातिर अपनी पूरी दौलत कुर्बान कर दिया। उस जज्बे को जानकर आप का सर उनकी अजमत में सलाम कर देगा कि 27 आलिशान बंगलो के मालिक हाजी उस्मान सेठ ने अपनी पूरी दौलत जिसकी कीमत 7 हज़ार करोड़ रुपया बताया जाता है के साथ साथ अपने सभी 27 आलिशान बंगले जंग-ए-आज़ादी को आर्थिक मदद के लिए बेच दिया और अपनी ज़िन्दगी की आखिरी साँस किराये के मकान में गुजारी। इतना ही नहीं, उन्होंने इस लड़ाई में आर्थिक मदद जुटाने के लिए अपने एक बेटे तक को गिरवी रख दिया था। उनके आल औलाद के जज्बे को भी आप सलाम कर बैठेगे कि हाजी उस्मान सेठ के बेटो ने भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरु द्वारा कई एकड़ ज़मींन तोहफे में उनको दिया गया जिसको लेने के लिए हाजी उस्मान सेठ के बेटो ने मना कर दिया।
सन 1887 में जन्मे हाजी उस्मान सेठ बैंगलोर शहर के सबसे सुप्रतिष्ठित और रईस मुस्लिम परिवार से थे। उनके पिता गुजरात राज्य के कच्छ में कपड़ों का बहुत बड़े व्यापारी थे। “Cutchi Memon Businessman” के बारे में विस्तार से लिखने वाले लेखक नरेंद्र के0वी0 के अनुसार उस्मान सेठ की ये रईसी उनके दादा यूसुफ मोहम्मद पीर की कमाई हुई थी, जो 1900 के दशक में हाजी उस्मान को विरासत में मिली थी। नरेंद्र के अनुसार सेंट मार्क रोड पर स्थित हाजी उस्मान सेठ का “कैश फ़ार्मेसी” एक मील का पत्थर साबित हुआ। इसे बेंगलुरु के पहले सुपरस्टोर और मॉल के रूप में जाना गया। नरेंद्र के अनुसार, कैश बाजार बॉरिंग क्लब के ठीक सामने स्थित था और इसकी दुकानें एक वर्ग किमी तक फैली हुई थीं। इसमें पिन से लेकर कारों, विदेशी फलों, सब्जियों और फूलों तक सब कुछ मिलता था। ब्रांड और उत्पाद पूरे यूरोप से आयात किए गए थे। कहा जाता है कि कैश बाजार की इमारत में 21 दरवाजे थे जो ढलवां लोहे की ग्रिल के साथ एक बड़े से बरामदे में खुलते थे।
1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, अंग्रेजों ने लोगों को प्रशिक्षित करने और सेना की ताकत बढ़ाने के लिए अंग्रेजी अधिकारियों को भारत भेजा। भारत भेजे गए अंग्रेज अधिकारियों की सेवा और उनकी जीवन शैली के अनुरूप वस्तुओं का आयात करने के लिए कुछ सैन्य ठेकेदार थे। शुरुआत में हाजी उस्मान सेठ ऐसे ही धनी ठेकेदार के तौर पर जाने जाते थे। विरासत में मिले अपने कारोबार को उस्मान सेठ ने खूब आगे बढ़ाया। एक समय था जब वह ब्रिटिश राज्य के सबसे अमीर भारतीयों में से एक माने जाते थे। उन्होंने अपने 7 बेटों को विरासत में देने के लिए 27 बंगले बनवाए थे।
1919 में, ओपेरा थियेटर की सफलता से प्रोत्साहित होकर उस्मान सेठ ने रेजीडेंसी रोड पर इंपीरियल थिएटर की शुरुआत की। इस थियेटर में केवल अंग्रेजी फिल्मों की स्क्रीनिंग की जाती थी और ये साउथ परेड के आसपास के निवासियों के बीच लोकप्रिय था। नरेंद्र के अनुसार, सेंट मार्क रोड के आसपास के सभी स्कूल उस्मान सेठ के परिवार के दान से ही बनाए गए थे। अन्य संस्थानों के अलावा, उन्होंने 1921 में इंडियन नेशनल स्कूल खोला था। इन सबसे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस्मान सेठ कितने अमीर थे लेकिन जब समय आया तो उन्होंने देश के लिए अपना व्यापार, अपनी अमीरी, ऐश-ओ-इशरत की जिंदगी सब छोड़ दिया। वह कर्नाटक और मद्रास खिलाफत समिति के अध्यक्ष भी रहे। इस वजह से उन्हें ‘खिलाफत वाले उस्मान सेठ’ के नाम से भी जाना गया।
इसके बाद 1919 में उनकी जिंदगी का वो मोड़ आया जिसने उन्हें पूरी तरह से बदल दिया। पैसे जोड़ने की धुन में लगा रहने वाला व्यापारी अब देशभक्ति की राह पर बढ़ चुका था। 1920 में हुए असहयोग आंदोलन ने उस्मान सेठ की जिंदगी बदल दी। इस आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने पूरे देश से यूरोपीय समान का विरोध करने को कहा। उस्मान सेठ महात्मा गांधी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ब्रिटेन के बने कपड़ों का बायकाट करते हुए अपने कैश बाजार में सभी आयातित उत्पादों में आग लगा दी। इसके अलावा वर्ष 1920-1921 में अंग्रेजी स्कूलों के बाईकाट के लिए हाजी उस्मान सेठ ने “इण्डियन नेशनल स्कूल” खोलकर गरीब भारतीय बच्चों के लिए स्वदेशी पढ़ाई की व्यवस्था की।
कुछ साल बाद, एक ऑटोमोबाइल कंपनी ने कैश बाज़ार के कुछ हिस्सों को खरीद लिया। आगे चल कर ये इंडिया गैरेज के रूप में लोकप्रिय हुआ। 1919 में स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनने के बाद उस्मान सेठ का परिचय महात्मा गांधी और अली बंधुओं से हुआ। इसके बाद इन सबसे सेठ का अक्सर मिलना जुलना होता रहा। साल 1920 में स्वतंत्रता आंदोलन में पैसों की भारी कमी आने लगी। ऐसे में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और अली बंधु इस समस्या के निवारण के लिए हाजी उस्मान सेठ के यहां पहुंचे। उन्होंने उस्मान सेठ को सारी समस्या बताई। इसके बाद हाजी उस्मान सेठ ने एक पल के लिए भी नहीं सोचा और महात्मा गांधी के हाथ में एक ब्लैंक चेक व दस किलो सोने के जेवरों से भरा बैग थमा दिया। उन्होंने साथ में ये भी कहा कि, ‘आप नाश्चिंत रहें, मेरे पास जो कुछ भी है वो अपने देश की आज़ादी के लिए ही है, जब भी देश को जरूरत होगी मैं उसे नि:संकोच देने के लिए सदैव सहर्ष तैयार रहूंगा।‘ हाजी उस्मान सेठ ने अपना ये वादा मरते दम तक निभाया।
हाजी उस्मान सेठ ने देश की आजादी के लिए उन 27 आलीशान बंगलों को भी बेच दिया जिसे उन्होंने अपने साथ बेटों के लिए रखा था। वह 15 साल तक मैसूर स्टेट कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष पद पर रहे। महात्मा गांधी द्वारा किये गए 3 आंदोलनों में वे जेल भी गए। हाजी उस्मान सेठ द्वारा स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन के लिए दी गई राशि आज के हिसाब से 7 हजार करोड़ रुपये आंकी गई। इतनी बड़ी रकम हाजी उस्मान सेठ की दानवीरता का महज एक छोटा सा उदाहरण थी। सबसे बड़ा उदाहरण तो उन्होंने अपनी तंगहाली भरे दौर में दिया। दरअसल, देश के प्रति उनका ये प्रेम देख अंग्रेज उनसे बेहद नाराज हो गए। ऐसे में अंग्रज हुक्मरानों ने उनके व्यापार का बहिष्कार करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे उस्मान सेठ भी व्यापार से दूर और देश के करीब होते गए। ऐसे में उन्हें वो दौर देखना पड़ा जब उनकी रईसी तंगहाली में बदल गई लेकिन उन्होंने इस तंगहाली और बर्बादी की भी फिक्र नहीं की। जब देश को आर्थिक मदद की फिर जरूरत पड़ी तो उन्होंने अपने बड़े बेटे इब्राहिम को ही गिरवी रख दिया। इससे जो धन प्राप्त हुआ उसे उन्होंने फिर से देश की सेवा में लगा दिया।
देश ने ही नही दुनिया ने देखा उनकी मय्यत में आई भीड़
यहाँ तक की वह हर एक घर अपना बेच कर खुद किराय के मकान में रहने लगे। कैश बाजार जैसे व्यापार और 27 आलीशान बंगलों का मालिक, जिसके पास अकूत संपत्ति थी, उसने जब 1932 दुनिया को अलविदा कहा तो उसके सर पर किराये की छत थी। हाजी उस्मान सेठ ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना सब कुछ दान करने के बाद आर्थिक तंगी से जूझते हुए एक किराये के घर में अपनी आखिरी सांस ली। ऐसा कहा जाता है कि शिवाजीनगर में जुमा मस्जिद से लेकर जयमहल पैलेस कब्रिस्तान तक उनका अंतिम संस्कार पांच किलोमीटर लंबा था।
खुद्दार और वतनपरस्त बाप के बेटे ने नहीं ली सरकार की 300 एकड़ ज़मीन
1947 में भारत के आजाद होने के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने वर्ष 1949 में हाजी उस्मान सेठ साहब के बेटे इब्राहिम जिन्हें गिरवी रख कर हाजी उस्मान सेठ ने मुल्क की खिदमत किया था, को 300 एकड़ ज़मीन देने की पेशकश की थी, लेकिन हाजी उस्मान सेठ साहब के बेटे इब्राहिम ने इसे ये कह कर लेने से इनकार कर दिया कि, “हमारे वालिद हाजी उस्मान सेठ ने अपने आखिरी दिनों में मरने से पहले कहा था कि ‘मैं तुम लोगों के लिए कुछ भी छोड़कर नहीं जा रहा हूं। मैंने अपने वतन को आज़ाद कराने के लिए तुम सभी लोगों के साथ बहुत ज़्यादती की है। अब तुम लोग खुद अपने पैरों पर खड़े होना और जब तक ज़िंदा रहना अपने इस वतन के लिए जीना और अगर जरूरी हो तो अपने वतन के लिए मौत को भी गले लगाने से भी मत चूकना।” महात्मा गांधी ने हाजी उस्मान सेठ की दानवीरता के बारे में कहा था कि, “हाजी उस्मान सेठ के हम सभी कर्ज़दार हैं। इनके एहसानों का बदला चुकाया नहीं जा सकता है।”