प्रथम विश्व युद्ध में सल्तनत-ए-उस्मानिया की हार के बाद से इज़राइल और फलिस्तीन का 100 सालो पुराना विवाद जाने आखिर है क्या?, पढ़े ग़ाज़ी अर्तगुल से शुरू हुई सल्तनत-ए-उस्मानिया कैसे प्रथम विश्व युद्ध में हारी

तारिक़ आज़मी

प्रथम विश्वयुद्ध के पहले सल्तनत-ए-उस्मानिया एक बड़ी सल्तनत हुआ करती थी। इस सल्तनत की बुनियाद गाजी इर्तुगल ने रखा था। यह सल्तनत-ए-उस्मानिया कितनी बड़ी थी इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते है कि इस सल्तनत से कुल 56 मुल्क निकले है। सल्तनत-ए-उस्मानिया का खात्मा प्रथम विश्वयुद्ध में हुआ। प्रथम विश्व युद्ध में सल्तनत-ए-उस्मानिया की हार हुई।

दरअसल सल्तनत-ए-उस्मानिया की शुरुआत ही संघर्ष के साथ हुई और इसका खत्म भी संघर्ष के साथ हुई। इतिहासकारों की माने तो गाजी अर्तगुल एक तुर्क कबीले के सरदार थे। उनके पास लगभग 500 घुडसवारों की फ़ौज थी जो हारते हुवे सल्तनत के तरफ से लड़कर उसको जीत दिलवा देते थे। ऐसी ही एक जंग में उन्होंने सेल्जक प्रधान का साथ दिया और सेल्ज़क प्रधान की जीत हुई जिससे खुश होकर सेल्ज़क ने गाज़ी अर्तग्रुल को उपहार स्वरूप एक छोटा-सा प्रदेश दिया। जहा के वह प्रधान हुआ करते थे। तत्कालीन प्रधान वर्त्तमान के किसी जमीदार से मुकाबिल होता था। ग़ाज़ी आर्तग्रुल की मौत 1281 में हुई और उनकी पूरी ज़िन्दगी जंग में गुज़री।

गाजी अर्तगुल के बाद उनके पुत्र उस्मान ने प्रधान का पद हासिल किया। उसने 1299 में उन्होंने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। यहीं से उस्मानी साम्राज्य की स्थापना हुई। इसके बाद किस्तुनतुनिया फ़तेह के बाद जो साम्राज्य उसने स्थापित किया उसे उसी के नाम पर उस्मानी साम्राज्य कहा जाता है इसी को अंग्रेजी में ऑटोमन एम्पायर भी कहा जाता है)। प्रथम विश्वयुद्ध ऑटोमन एम्पायर यानी सल्तनत-ए-उस्मानिया के ही मुखालिफ था। जिसमे सल्तनत-ए-उस्मानिया आखिर में हार गई। इस विश्वयुद्ध में माना जाता है कि 1 करोड़ 70 लाख लोगो की कुल मौत हुई थी।

सल्तनत-ए-उस्मानिया यानी आटोमन एम्पायर की हार के बाद मध्य-पूर्व में फ़लस्तीन के नाम से पहचाने जाने वाले हिस्से को ब्रिटेन ने अपने क़ब्ज़े में ले लिया था। इस ज़मीन पर बहुसंख्यक अरब यानी मुस्लिम समुदाय के लोग थे और अल्पसंख्यक वर्ग यहूदी थे। दोनों के बीच तनाव तब शुरू हुआ, जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने ब्रिटेन को यहूदी लोगों के लिए फ़लस्तीन को एक ‘राष्ट्रीय घर’ के तौर पर स्थापित करने का काम सौंपा। यहूदियों के लिए यह उनके पूर्वजों का घर है जबकि फ़लस्तीनी अरब यानी मुस्लिम समुदाय भी इस पर दावा करते रहे हैं और अपना घर बताते है।  उन्होंने इस क़दम का विरोध किया।

इसके बाद 1920 से 1940 के बीच यूरोप में उत्पीड़न और दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नरसंहार से बचकर भारी संख्या में यहूदी यहाँ पर पहुँचे। इस दरमियान फलिस्तीन ने यहूदी समुदाय को सहारा दिया ऐसा अरब मुस्लिमो का दावा है। जबकि यहूदी समुदाय मादर-ए-वतन की तलाश इसको कहते है। इस दरमियान अरबों, यहूदियों और ब्रिटिश शासन के बीच हिंसा भी शुरू हुई। अंततः 1947 में संयुक्त राष्ट्र में फ़लस्तीन को यहूदियों और अरबों के अलग-अलग राष्ट्र में बाँटने को लेकर मतदान हुआ और यरुशलम को एक अंतरराष्ट्रीय शहर बनाया गया।

इस योजना को यहूदी नेताओं ने स्वीकार किया, जबकि अरब पक्ष ने इसको ख़ारिज कर दिया और यह कभी लागू नहीं हो पाया। 1948 में समस्या सुलझाने में असफल होकर ब्रिटिश शासक चले गए और यहूदी नेताओं ने इसराइल राष्ट्र के निर्माण की घोषणा कर दी। कई फ़लस्तीनियों ने इस पर आपत्ति जताई और युद्ध शुरू हो गया। जिनके विरोध में अरब देशों के सुरक्षाबलों ने धावा बोल दियाऔर लाखों फ़लस्तीनियों को अपने घरों से भागना पड़ा या उनको उनके घरों से ज़बरन निकाल दिया गया। इसको फलिस्तिनियो ने अल-नकबा या ‘तबाही’ कहा। बाद के सालों में जब संघर्ष विराम लागू हुआ, तब तक इसराइल अधिकतर क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले चुका था।

जिसके बाद जॉर्डन के क़ब्ज़े वाली ज़मीन को वेस्ट बैंक और मिस्र के क़ब्ज़े वाली जगह को गज़ा के नाम से जाना गया। वहीं, यरुशलम को पश्चिम में इसराइली सुरक्षाबलों और पूर्व को जॉर्डन के सुरक्षाबलों के बीच बाँट दिया गया। वही मस्जिद-ए-अक्सा को लेकर भी मुस्लिम पक्ष पवित्र स्थल मानते है, जबकि यहूदी भी इसको अपना पवित्र स्थल मानते है। मगर मस्जिद-ए-अक्सा की देख रेख जार्डन वक्फ बोर्ड करता है और वहा नमाज़े होती है। अक्सर इसराइली फौजों के द्वारा मस्जिद-ए-अक्सा में मारपीट के समाचार आते है।

यहाँ मुख्य मुद्दे की बात ये है कि प्रथम विश्व युद्ध के पहले और लड़ाई के दौरान अंग्रेज़ों ने अरबों और यहूदी लोगों से कई वायदे किए थे, जिसका वे थोड़ा सा हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाए। ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ पहले ही मध्य पूर्व का बँटवारा कर लिया था। इस वजह से अरब लोगों और यहूदियों के बीच तनाव की स्थिति पैदा हो गई और दोनों ही पक्षों के सशस्त्र गुटों के बीच हिंसक झड़पों की शुरुआत हो गई। जो अभी तक जारी है। इस 100 साल पुराना विवाद शनिवार तडके एक बड़े हिंसक झड़प के बाद फिर से चर्चा में आ गया है जब इसराइल पर शनिवार को ग़ज़ा से औचक और बड़ा हमला हुआ।

इसके बाद इसराइल की ओर से जवाबी कार्रवाई की गई और एक पुराने विवाद में तनाव और हिंसा की नई लपटें उठने लगीं। इस सबके बीच ईरान ने साफ़ साफ़ फलिस्तीन के आज़ादी तक उसका साथ देने की बात कही है। आज तडके हुवे इसराइल पर हमले की ज़िम्मेदारी फ़लस्तीनी गुट ‘हमास’ ने ली है, ‘हमास’ ने जितने बड़े पैमाने पर इसराइल पर हमला बोला है, उसे ‘अभूतपूर्व’ कहा जा रहा है। हमास का दावा है कि उसने शनिवार तड़के इसराइल पर 5000 रॉकेट दागे। इसराइल के कई शहरों में जानमाल का काफ़ी नुकसान हुआ है।

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