साहिर लुधियानवी के पुण्यतिथि पर विशेष: ‘माना के इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके, कुछ खार कम तो कर गये गुज़रे जिधर से हम’
शाहीन बनारसी
साहिर लुधियानवी एक ऐसी शख्सियत है, जो तारुफ़ के मोहताज़ नहीं। शायद ही कोई ऐसा शख्स होगा, जो साहिर लुधियानवी जैसे शख्सियत से वाकिफ न हो। आज उस लफ्जों के जादूगर की 43वीं पुण्यतिथि है। आज ही के दिन यानी 25 अक्टूबर 1980 को साहिर लुधियानवी ने इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह दिया था। भारत के अगर टॉप 10 भजन की बात करे तो उनमे से आधा दर्जन के करीब साहिर की कलम से निकले हुवे है।
साहिर को इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हुए कई साल गुज़र गये है, मगर जब भी हम उनके लिखे गीत सुनते है तो उनकी यादें ताज़ा हो जाती है और वो हमारे दिलो में जिंदा होते है। साहिर लुधियानवी की तारीफ़ को मुझे लफ्जों की मोहताजगी महसूस होगी, मगर उनकी तारीफ़ ख़त्म नहीं होगी। साहिर लुधियानवी, जिनके गीतों को आज सभी के लब गुनगुनाते है, आइये हम आपको लफ्ज़ो से खेलने वाले साहिर लुधियानवी के ज़िन्दगी के कुछ पहलु से रूबरू करवाते है।
साहिर की ज़िन्दगी काफी संघर्ष भरी रही है। कहते है हर सफल व्यक्ति अपने पीछे संघर्ष लिए हुए होता है। सफलता के मार्ग तक पहुँचने के लिए हर व्यक्ति बहुत संघर्ष करता है। तब कही जाकर वो सफलता हासिल कर पाता है। साहिर लुधियानवी के लिखे गीतों और गजलो से भी ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनके ज़िन्दगी में क्या कुछ नहीं गुज़रा। साहिर के लिखे शायरी, नज्मे, गजले और गीतो से ऐसा मालुम होता है, जैसे वो गीत कही न कही साहिर के ज़िन्दगी से जुड़े हुए है। उनके द्वारा लिखा हर गीत उनके जीवन का एक हिस्सा मालुम होते है।
यूँ तो साहिर एक जागीरदार घराने में पैदा हुए थे और अच्छे परिवार से ताल्लुक रखते थे। मगर उनकी ज़िन्दगी काफी गरीबी और दिक्कतों में गुजरी। इसका कारण था उनके वालिदैन का अलग होना। दरअसल, उनके वालिद और वालिदा किन्ही कारणों से अलग हो गये थे और साहिर को अपने वालिदा के साथ रहना पड़ा। जिसके कारण उनकी ज़िन्दगी गरीबी और दिक्कतों में गुजरी। साहिर ने लुधियाना से ही तालीम हासिल की और कॉलेज के वक्त से ही वो शेरो शायरी के लिए पुरे कॉलेज में मशहूर हो गये थे। फिर साहिर के ज़िन्दगी में कुछ व्यक्तिगत समस्या ऐसी आई जिनके कारण उन्हें लुधियाना छोड़ कर लाहौर जाना पड़ा।
लुधियाना में ही शेरो शायरी के लिए मशहूर साहिर ने लाहौर आकर अपनी पहली कविता लिखी। यहाँ उन्होंने अपनी पहली कविता-संग्रह को छपवाया जिसका नाम था तल्खियाँ। लाहौर में साहिर सम्पादक भी बने रहे और उन्होंने सन 1945 में उर्दू-पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार (लाहौर) का सम्पादन किया। इन पत्रिकाओं के अलावा उन्होंने द्वैमासिक पत्रिका का भी सम्पादन किया, मगर इस पत्रिका के संपादन के बाद साहिर लाहौर में कोई और पत्रिका का सम्पादन न कर सके और पाकिस्तान छोड़ कर चले गये।
दरअसल, साहिर द्वारा संपादित द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के किसी रचना को पाकिस्तान सरकार ने अपने विरुद्ध समझ लिया और साहिर के खिलाफ वारंट जारी कर दिया जिसके बाद साहिर दिल्ली चले आये और यहाँ पर भी साहिर कूछ ही दिनों रहे और यहाँ से भी वो मुंबई चले आये और यही रहने लगे। यहाँ पर उन्होंने प्रीतलड़ी और शाहराह का सम्पादन किया।
मुंबई आने के बाद साहिर ने फ़िल्मी जगत में अपनी एंट्री की और अपना पहला गीत लिखा। फिल्म का नाम था “जीने की राह।” साहिर के लिखे इस गीत से उन्हें सफलता और प्रसिद्धि न मिल पाई। उन्हें सफलता मिली फिल्म “नौजवान” में लिखे गीत से। इसके बाद साहिर ने फ़िल्मी दुनिया के कई फिल्मो को अपने गीत दिए और एक सफल गीतकार के रूप में जाने जाने लगे। उन्होंने हर तरह के गीतों पर अपनी कलम चलाई है। फिर चाहे वो गम के हो या ख़ुशी के, इज़हार-ए-इश्क हो या जुदाई के हर तरह के गीत साहिर ने लिखे और इस फ़िल्मी जगत के चमकते सूरज बन गये।
साहिर शब्दों के जादूगर एक सफल शायर और गीतकर तो बन चुके थे मगर उन्हें प्रेम में सफलता न मिल सकी। उन्हें दो बार इश्क हुआ मगर दोनों बार ही उन्हें उनका प्यार न मिल सका जिसके कारण उन्होंने शादी नहीं की थी और 59 साल की उम्र में इस चमकते सूरज ने इस दुनिया को अलविदा कहते हुए इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत लिया मगर आज भी वो अपने लिखे नज्मो, गजलो, शायरी और गीतों से हमारे दिलो में जिंदा है। उनके लिखे गीत आज भी सभी के लबो के गुनगुनाहट बने हुए है। उनके लिखे गीतों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है जैसे वो उन पर बीत चुके है।
साहिर सिर्फ उर्दू अदब के अज़ीम शायर ही नहीं बल्कि फ़िल्मी जगत के एक ऐसे गीतकार रहे है जिन्होंने सिनेमा जगत को बहुत ही बेहतरीन और खुबसूरत नगमो से गुलज़ार कर दिया है। साहिर ने मुहब्बत, हौसला, हिज्र और और गम जैसे हर तरह के गीतों पर अपनी कलम चलाई है और शेरो शायरी लिखे है। साहिर ने फिल्म नया दौर, दीवार, काजल जैसी फिल्मो को अपने खुबसूरत गीत दिए है।
इसके अलावा सिनेमा जगत में सबसे ज्यादा जाने जाने वाली और प्रसिद्द फिल्म “कभी-कभी” फिल्म को साहिर ने अपने खुबसूरत नगमे दिए है। साहिर द्वारा लिखा हुआ गीत “मैं पल दो पल का शायर हु, पल दो पल मेरी कहानी है, पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है” सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे इस गीत का हर पहलु साहिर के ज़िन्दगी से जुड़ा हुआ है। साहिर ने ऐसे ही अनगिनत नगमो से सिनेमा जगत को गुलज़ार कर दिया है।
आज वो हमारे बीच तो नहीं है मगर अपने लिखे गीतों, नज्मो और गीतों द्वारा वो हमेशा हमारे दिलो में जिंदा रहेंगे। बेशक साहिर लुधियानवी जैसा शायर और गीतकार कोई नहीं है और रहती दुनिया तक न कोई होगा। साहिर को ऐसे ही लफ्जों का जादूगर नहीं कहा जाता बल्कि उनके लिखे गीतों में एक कशिश है, जो आपको खुद ब खुद अपनी ओर खींचती है। साहिर एक वृद्ध से लेकर युवा की पसंद हमेशा से रहे है।
आज भी उनके लिखे गीत और शायरी हर युवाओं की पसंद है। साहिर को उनकी ज़िन्दगी ने जो दिया चाहे फिर वो खुशी हो गम हो या फिर हिज्र हो या इश्क हो इन सभी को उन्होंने अपने गीतों में उतार दिया। वो आज हमारे बीच जिंदा तो नहीं है, मगर वो अपनी लेखनी द्वारा हमेशा हमारे दिलो में जिंदा रहेंगे और फ़िल्मी जगत के चमकते सूरज रहेंगे जिनके गीतों से आज भी सिनेमा जगत गुलज़ार है और हमेशा रहेगा।