बुझ गया उर्दू अदब का एक और चराग-ए-सुखन: नही रहे उर्दू के मशहूर शायर मुनव्वर राणा, 71 साल की उम्र में कहा दुनिया को अलविदा, जाने कौन थे मुनव्वर राणा और पढ़े मुनव्वर राणा का मशहूर कलाम ‘मुहाजिर नामा’
तारिक आज़मी
उर्दू अदब का एक और चराग-ए-सुखन आज गुल हो गया। उर्दू अदब के अज़ीम और मशहूर शायर मुनव्वर राणा का आज इन्तेकाल (देहांत) हो गया है। अभी से कुछ वक्त पहले उन्होंने अपनी आखरी सांसे अदब की नगरी लखनऊ स्थित पीजीआई में लिया। वह काफी वक्त से बीमार थे और उनके इन्तेकाल की वजूहात डाक्टर हार्ट अटैक बता रहा है। इस खबर की तस्दीक उनके बेटे ने किया है।
मुनव्वर राणा को 9 जनवरी को तबीयत बिगडऩे के बाद लखनऊ के पीजीआई में आईसीयू में भर्ती किया गया था। इससे पहसे वह दो दिन पहले तक लखनऊ स्थित मेदांता अस्पताल में भर्ती थे। उन्हें किडनी व हृदय रोग से संबंधित समस्या थी। उनकी बेटी सुमैया राना ने बताया कि रात साढ़े 11 बजे के करीब उन्होंने अंतिम सांस ली। दिल का दौरा पड़ा था। रायबरेली में आज सोमवार को उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया जायेगा।
मुनव्वर राणा को उनके बेबाक बयान के लिए भी काफी जाना जाता था। उन्हें साल 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। मोब लीचिग की घटनाओं पर उन्होंने असहिष्णुता बढ़ने का आरोप लगाते हुए साल 2015 में इस अवॉर्ड वापस कर दिया था। यही नही उन्होंने किसान आन्दोलन का समर्थन करते हुवे कहा था कि संसद भवन को गिरा कर वह खेत बना देना चाहिए। राम मंदिर पर फैसला आने के बाद मुनव्वर राणा ने पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पर सवाल उठा दिया था।
नवम्बर 1952 को रायबरेली में जन्मे मुन्नवर राणा ज्यादातर वक्त लखनऊ में रहते थे। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनके बहुत से नजदीकी रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए। लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने देश में रहने को ही अपना कर्तव्य माना। मुनव्वर राना की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता (नया नाम कोलकाता) में हुई। राना ने ग़ज़लों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं। उनके लेखन की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का ऊर्दू के अलावा अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। उनकी लिखी हुई किताबे है माँ, ग़ज़ल गाँव, पीपल छाँव, बदन सराय, नीम के फूल, सब उसके लिए, घर अकेला हो गया, कहो ज़िल्ले इलाही से, बग़ैर नक़्शे का मकान, फिर कबीर और नए मौसम के फूल।
उन्हें विभिन्न सम्मान जिसमे अमीर ख़ुसरो अवार्ड, कविता का कबीर सम्मान, मीर तक़ी मीर अवार्ड, शहूद आलम आफकुई अवार्ड, ग़ालिब अवार्ड, डॉ0 जाकिर हुसैन अवार्ड, सरस्वती समाज अवार्ड, मौलाना अब्दुर रज्जाक़ मलीहाबादी अवार्ड, सलीम जाफरी अवार्ड, दिलकुश अवार्ड, रईस अमरोहवी अवार्ड, भारती परिषद पुरस्कार, हुमायूँ कबीर अवार्ड, बज्मे सुखन अवार्ड, इलाहाबाद प्रेस क्लब अवार्ड, हज़रत अलमास शाह अवार्ड, सरस्वती समाज पुरस्कार, अदब अवार्ड, मीर अवार्ड, मौलाना अबुल हसन नदवी अवार्ड, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान अवार्ड आदि से सम्मानित किया गया था।
मुनव्वर राणा का वैसे तो हर कलाम मशहूर और मकबूल है। चाहे वह ‘मुख़्तसर सी ही सही ज़िन्दगी बढ़ जायेगी, माँ की आंखे चूम लीजिये रोशनी बढ़ जायेगी।’ हो या फिर ‘चला गया घर का बुज़ुर्ग, अब कौन बांधेगा पगड़ी’ हो। मगर सबसे ज्यादा जो सरहदों को पार कर के चाहा गया वह है मुहाजिर नामा। आइये पढ़ते है मुनव्वर राणा का लिखा मुहाजिर नाम
मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं,
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं।
कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है,
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं।
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में,
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं।
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी,
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं।
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी,
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं।
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से,
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं।
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं।
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद,
हम अपना घर, गली, अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं।
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है,
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं।
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है,
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं।
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे,
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं।
हमें सूरज की किरनें इसलिए तक़लीफ़ देती हैं,
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं।
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की,
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं।
कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं,
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं।
शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी,
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं।
वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की,
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं।
अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है,
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं।
भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी,
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं।
ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी,
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं।
हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर,
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं।
महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं,
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं।
वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी,
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं।
यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए,
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं।
हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी,
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं।
वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है,
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं।
उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला,
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं।
जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये,
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं।
उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें,
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं।
हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था,
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं।
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब,
इलाहाबाद में कैसा नाज़ारा छोड़ आए हैं।
कल एक अमरुद वाले से ये कहना पड़ गया हमको,
जहां से आये हैं हम इस फल की बगिया छोड़ आए हैं।
वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला,
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।
अभी हम सोच में गूम थे, के उससे क्या कहा जाए,
हमारे आंसुओ ने राज खोला छोड़ आए हैं।
मुहर्रम में हमारा लखनऊ वीरान लगता था,
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं।
जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है,
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं।
महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर,
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं।
तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए,
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं।
सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं,
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं।
हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको,
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं।
गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है,
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं।
हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी,
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं।
तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं।
ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी,
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं।
हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है ,
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं।