‘आलमी यौम-ए-उर्दू (वर्ल्ड उर्दू डे)’ और अल्लामा इकबाल की यौम-ए-विलादत पर विशेष: ‘उर्दू को एक रोज़ हम मिटा देंगे इस जहाँ से, यह बात भी कमबख्त ने उर्दू में कही थी’
तारिक आज़मी
‘उर्दू को एक रोज़ हम मिटा देंगे इस जहाँ से, यह बात भी कमबख्त ने उर्दू में कही थी’। दोस्तों आज आलमी यौम-ए-उर्दू यानी वर्ल्ड उर्दू डे है। हर साल 9 नवम्बर को मनाया जाने वाला वर्ल्ड उर्दू डे ख़ास इसलिए भी है कि इसी दिन यानि 9 नवम्बर को अज़ीम-ओ-शान शायर डॉ0 अल्लामा मो0 इकबाल की यौम-ए-विलादत भी है। इसी ख़ुशी में आज सेमिनार, सिम्पोज़ियम, मुशायरे आदि आयोजित होते हैं। जिनका खासियत होती है कि कैसे उर्दू को भारत में एक जिंदा जुबां के तौर पर न सिर्फ बाक़ी रखा जाए, बल्कि उसकी तरक्की का काम किए जाएँ और उसे गैर-उर्दू मुल्क के बाशिंदों तक पहुँचाया जाए।
दरअसल उर्दू एक इंडो-आर्यन जुबां है। यह जुबान दक्षिण एशिया में ख़ास तौर पर बोली जाती है। पाकिस्तान की मादरी जुबा और आम बोल चाल की ज़ुबान उर्दू है। भारत में उर्दू आठवीं अनुसूची भाषा की जगह लेती है। नेपाल में, उर्दू एक दर्ज इलाकाई जुबान बोली जाती है। वर्ल्ड उर्दू डे हर साल 9 नवंबर को मनाया जाता है। इस दिन सर डॉ मुहम्मद इकबाल की यौम-ए-विलादत है। उनकी पैदाइश 9 नवंबर 1877 को हुई थी, एक दक्षिण एशियाई मुस्लिम नगमानिगार और फिलासफर के साथ एक बड़े सियासतदान भी थे।
उर्दू में उनके कलाम 20वीं सदी के सबसे आलिशान कलाम में से एक थी। ब्रितानियाँ की हुकूमत की नज़र में अल्लामा इकबाल एक बड़ी किरकिरी के तौर पर थे। उनके लिखे तराने ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दुस्ता हमारा।’ आज भी मुल्क परस्तिश का जज्बा हमारे अन्दर भर देता है। आज का दिन इसलिए भी ख़ास है क्योकि उर्दू इस वक्त हाशिये पर है। हकीकत में उर्दू की पैदाइश हिंदुस्तान में ही हुई है, मगर इस मुहब्बत की जुबान को लोग परदेसी जुबान के तरीके से मानने लगे है।
आज के दिन उर्दू डे की मुखालफत भी हुई है। अल्लामा इकबाल के यौम-ए-विलादत के दिन उर्दू डे मानाने की मुखालफत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषाओं के केन्द्र और अखिल भारतीय कॉलेज एवं विश्वविद्यालय उर्दू शिक्षक संघ ने माँग की है कि 31 मार्च को उर्दू डे मनाया जाना चाहिए। इसकी वजह यह बताया गया है कि उस दिन उर्दू के लिए पंडित देव नारायण पाण्डेय और जय सिंह बहादुर ने अपनी जानों की क़ुरबानी दिया था। ये दो लोग उर्दू मुहाफ़िज़ दस्ता के मेंबर थे। 20 मार्च 1967 को उत्तर प्रदेश में देव नारायण पाण्डेय कानपुर कलेकटर के कार्यालय के समक्ष धरना दिए थे और भूख हड़ताल पर बैठे थे, जबकि सिंह ने राज्य विधान सभा के समक्ष धरना और भूख हड़ताल की थी। देव नारायण पाण्डेय का इन्तेकाल 31 मार्च को हुआ जबकि सिंह इसके कुछ दिनों बाद गुज़र गए।
अब बात अगर अल्लामा इकबाल की करे तो उन्होंने मुल्क को 1904 में तराना-ए-हिंद (सारे जहां से अच्छा) दिया। आज ऐसे लोग भी मिल जायेगे तो अल्लामा इकबाल को भारत के बटवारे का ज़िम्मेदार बता देते ई। जबकि उनको इतना भी नही पता कि अल्लामा इकबाल का इन्तेकाल 1938 में हो गया था। अल्लामा इकबाल पहले वह शख्सियत थे जिन्होंने भगवान् राम को ‘इमाम-ए-हिन्द’ कहा था। मगर आज अल्लामा इकबाल को अपनी मुल्क परस्तिश का सबुत देने के लिए मजबूर किया जाता है। हकीकत ये है कि अल्लामा इकबाल के कलाम सारे जहाँ से अच्छा को गुनगुना का आज भी फख्र से अपना सीना दुनिया के सामने चौड़ा करते है।
दुनिया भर में मशहूर और मकसूद ‘तराना ए हिंद’ (सारे जहां से अच्छा) को पहली बार गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में गदर पार्टी को बनाने वाले लाला हरदयाल के कहने पर इकबाल ने तरन्नुम में सुनाया था। लाला हरदयाल इस नज़्म से इतना मुत्तासर हुवे कि प्रोग्राम के शुरू से लेकर आखिर तक वह इसी नज़्म को सुनते रहे और खुद तक़रीर नहीं दिया था। जब 15 अगस्त 1947 को हमारा मुल्क आजाद हुआ तो आधी रात में होने वाले जश्न में यह तराना गाया गया था। 1950 के दशक में सितारवादक पंडित रविशंकर ने इसे सुरबद्ध किया। जब इंदिरा गांधी ने भारत के प्रथम अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा से पूछा था कि अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखता है तो जवाब देने के लिए इसी तराने का सहारा लेते हुए राकेश शर्मा ने कहा था, ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा।’ आज भी जब हमारी सेना के बैंड इस धुन को बजाते हैं तो हम फख्र से भर जाते हैं।
इकबाल का जन्म 9 नवंबर 1877 में पंजाब के सियालकोट में कश्मीरी हिंदू पंडित परिवार में हुआ था। उनके परिवार ने 17 वीं सदी में इस्लाम को अपना लिया। लाहौर के प्रतिष्ठित गवर्नमेंट कॉलेज से 1899 में ग्रेजुएट करने के बाद वे 1905 में वह ट्रिनिटी कॉलेज कैंब्रिज पहुंचे। इसे उनके ज़िन्दगी का पहला बड़ा बदलाव कहा जाता है। ब्रिटिश साम्राज्य की बंदिशों की जकड से निकलकर इंग्लैंड की खुली हवा में जाने पर उनके खयालात को खुला आसमान मिला। 1908 में वे भारत लौटे।
अल्लाह के कानून को सबसे बड़ा मानने वाले इकबाल ने लिखा है कि इस्लाम की आखरी मंजिल जम्हूरियत है। इस्लाम बताता है कि अपनी अलग-अलग तरीजत रखने वाले लोग अपनी तरीकत और तरबियत के साथ कैसे एक हो सकते हैं।
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते।
अल्लामा इकबाल जैसे शायर सदियों में जन्म लेते हैं, जैसा कि उन्होंने खुद लिखा है:
हजारों बरस नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।
आज पुण्यतिथि पर अल्लामा इकबाल को हम उनकी शायरी के जरिए याद करते हैं:
खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है।
ढूंढता फिरता हूं मैं एक बार अपने आप को,
आप ही गोया मुसाफिर आप ही मंजिल हूं मैं।
तू शाहीन है,परवाज है काम तेरा।
तेरे सामने आसमां और भी है।
सितारों के आगे जहां और भी हैं,
अभी इश्क के इम्तिहान और भी हैं।
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूं
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूं।
मस्जिद तो बना दी शब भर में ईमां की हरारत वालों ने
मन अपना पुराना पापी है बरसों में नमाज़ी बन न सका।