कुम्भ पर प्रो0 मोहम्मद आरिफ की कलम से: मुगलों के नाम पर महज़ यह एक और झूठ है कि ‘कुंभ तो मुग़ल भी नहीं रोक पाए’
प्रो0 मोहम्मद आरिफ
डेस्क: ये कितना अजीब है कि मुग़लों का नाम लेकर इस देश में आप भवें तानकर, चीखते हुए कुछ भी कह दें तो वो सच हो जाता है। इंटरनेट पर फर्ज़ी जानकारी की परतें इतनी मोटी हो गयी हैं कि हक़ीकत खुद झुठला दी गयी है। परसेपशन का इस खेल की शुरुआत बहुत पहले हुई जो जवां हो रही पीढ़ी को धीरे-धीरे घुट्टी की तरह पिलाई गयी और ज़हर अब काम कर रहा है।
आज एक तिलक लगाए हुए नौजवान को सेल्फ़ी वीडियो में चीख कर ये कहते हुए सुना ‘कुंभ रोकने की हैसियत किसी की नहीं है जब मुग़ल ही नहीं रोक पाए तो और कौन रोकेगा’ जब कि सच ये है कि कुंभ मेला जैसा आज है उसकी वैसी शक्ल मुग़ल काल और बाद में ब्रिटिश शासन के दौरान ही आकार लेनी शुरु हुई थी। मुग़ल काल में अकबर ने ही अपने खास सरकारी विभागों को कुंभ में घाटों को बनवाने को कहा इसके अलावा वहां पब्लिक टॉयलेट जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैय्या करवाई।
इतिहासकार डॉ हेरम्ब चतुर्वेदी ने अपनी किताब ‘कुंभ: ऐतिहासिक वांग्मय’ में दर्ज किया है कि अकबर ने बाकायदा दो अधिकारी कुंभ के इंतज़ाम देखने के लिए तैनात किए थे। पहला मीर-ए-बहर जो कि लैंड और वॉटर वेस्ट मैनेजमेंट का काम देखता था और दूसरा मुस्द्दी जिसके हवाले घाटों की जिम्मेदारी थी। अकबर की बादशाहत में मुगलों ने ही 1589 के इलाहाबाद कुंभ के रख रखाव पर 19000 मुगलियां सिक्के खर्च किए। इसी समय अकबर ने कुंभ में आने पर एक फीस लगाई जो रख रखाव और बाकी ज़रूरतों के लिए एक फंड जमा करने की कोशिश थी।
यही वो फीस है जिसे लेकर भ्रम फैलाया जाता है कि अकबर ने कुंभ पर टैक्स लगा दिया था। ग्राफिक्स में अकबर को हाथ में तलवार थामे तीर्थ यात्रियों पर चीखते हुए दिखाया जाता है जो महज़ एक शरारत है। इसकी तसदीक़ धनंजय चोपड़ा की किताब ‘भारत में कुंभ’ में मिलती है जिसमें उन्होंने लिखा है कि उसी साल जब हिंदू तीर्थ करने वालों से अकबर ने मुलाकात की तो उन लोगों ने अकबर का पहले तो धन्यवाद दिया। और फिर उस शुल्क को हटाने की गुज़ारिश की जिसे अकबर ने ना सिर्फ फौरन हटा भी लिया बल्कि तीर्थ पुरोहित चंद्रमान और किशनराम को माघ मेले के लिए ढाई सौ बीघा ज़मीन भी दी।
उसके बाद पूरे मुगलिया दौर तक कुंभ में आने वाले से कोई फीस, कोई शुल्क, कोई टैक्स नहीं लिया गया। लेकिन हां 1822 में अंग्रेज़ सरकार ने फिर इसे शुरु किया। एस0 के0 दुबे की एक किताब है ‘कुंभ सिटी प्रयाग’ उस किताब में एक चैप्टर है ‘Kumbh In 1822’ इसमें एक पर्शियन स्कॉलर के हवाले से लिखा गया है कि यही वो साल था जब अंग्रेज़ों ने अकबर के दौर में बंद हुआ टैक्स दोबारा शुरु किया। अंग्रेज़ी सरकार ने कुंभ में आने वालों पर एक रुपये चार आना की फीस लगाई। बिना फीस दिये डुबकी लगाने पर पाबंदी थी।
‘Kumbh In 1822’ में एस0 के0 दुबे ने लिखा है कि वो कुंभ बहुत ही फीका था। भीड़ ना के बराबर थी क्योंकि एक रुपये चार आना एक बड़ी रकम थी। इतने पैसों में उस वक्त पूरे परिवार के लिए महीने भर का राशन आ जाता था। अंग्रेज़ सरकार को उम्मीद थी कि इसके ज़रिए वो मोटा राजस्व बना लेगी और बढ़िया कमाई होगी लेकिन ये चाल फेल हो गई क्योंकि लोग महाकुंभ में नहीं गए। ये एक रुपये चार आने का लगान का नियम 1840 तक यानि अंग्रेज़ गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड के समय तक रहा।
किताब में लिखा है कि उसके बाद कुंभ में खत्म होती भीड़ से परेशान होकर अंग्रेज़ों ने नया नियम लागू किया। कहा गया कि अब किसी यात्री से कोई लगान नहीं लिया जाएगा। कोई टैक्स न हीं है लेकिन जो लोग कुंभ में कारोबार कर रहे हैं, दुकानें लगा रहे हैं, सामान बेच रहे हैं उनसे फीस देनी होगी। स्टाल लगाने के लिए पैसा देना होगा। कारोबारियों ने सरकार को मोटी रकम देकर वहां अमीर लोगों के लिए आलिशान तंबू लगवाए जिनसे उन्होंने कमाई करनी शुरु की। ये वही स्ट्रक्चर है जो आजतक चला आ रहा है।
तो मुग़लों के नाम पर कुछ भी अनाप-शनाप लिखने वालों की नीयत दरअसल कुछ और है उनका निशाना मुग़ल नहीं उनसे मिलते जुलते नामों वाली आज की एक बड़ी आबादी है। बांटने वालों का प्रोपगैंडा है। इस मुल्क में हिंदू और मुसलमान हमेशा साथ-साथ मिल कर रहे हैं और हमेशा ही उनमें इख्तिलाफ भी रहे। लेकिन इस लंबे को-एक्ज़िस्टेंस में हमारी मिली जुली संस्कृति हमारी तहज़ीब ही दरअसल हमारे मुल्क की ताकत रही है और हमेशा रहेगी।
नोट: इस पोस्ट में सभी विचार लेखक के अपने स्वतंत्र विचार है। लेखक प्रोफ़ेसर मो0 आरिफ इतिहास के एक मशहूर ज्ञाता है और समाजसेवक है। उनके द्वारा समाज के सेक्युलर फैब्रिक को चुस्त दुरुस्त रखने के लिए आपसी भाईचारे के कार्यक्रम समय समय पर आयोजित होते रहते है। गांधीवादी विचारधारा के समर्थक प्रो0 मो0 आरिफ वाराणसी में निवास करते है और प्रदेश में मानिंद शख्सियत के तौर पर उनकी गिनती होती है।