फ़ुक्कों की फ़ाग में जोगीरा सारा रा रा – नहीं, अब -योयो हनी का जलवा

दिग्विजय सिंह 
कानपुर नगर, कानपुर में जितनी पुरानी और प्रगाड परम्परा होली की है उतनी ही पुरानी पंरपरा यहां की फाग गायकी की  भी है। हलांकि समय के साथ इस विधा में  में अब परिवर्तन आ गया हैं और नयी पीढी  इस देशी परम्मपरा की जगह अब पाश्चात्य संगीत को अपनाने लगी है । लेकिन इसी नगर में आज भी कुछ लोग है जो इस पुरानी परम्परा को अपने कंधो पर उठाये हुए है। और ही नही अपनी भावी पीढ़ी को भी उत्तराधिकारत्व लिए तैयार भी कर रहे है। 
मिली जानकारी के अनुसार शहर में दो ही फाग मण्डली है जिसमें एक शिवाला खास बाजार में है जिसमें वैकुण्ठ द्विवेदी, दउवा द्विवेदी, रज्जन, कैलाशनाथ, विजय, उदल जैसे पारंगत वरिष्ठ फनकार है  तो वहीं ग्वालटोली में दिनेश तिवारी के नेतृत्व में एक मण्डली जिसमे छोटे बच्चो से लेकर युवा और बुजुर्ग है। यह दोनो ही मण्डली समय के बदलाव के साथ एक साथ मिलकर होली की फाग गाती है। फाग में वैसे तो श्रीराम जी, हनुमानजी, के साथ अन्य देवी देवाताओं का वर्णन होता है और महाभारत, आल्हा-उदल की भी फाग गाई जाती है। लेकिन होली के समय विशेष रूप में राधा-कृष्ण के आपसी प्रेम रस में डूबी फाग सुनने वालों का मन मोह लेती है। 
—–फाग के कुछ प्रसिद्ध लोक गीत—-

-तोरे पईयां परू करजोरी श्याम हमसे न ख्यालो होरी

–मन लइगा संवरिया गोपाल माई मोर मन बंसी बजाय हर लइगा
–श्रीृकृष्ण कहें सुन रही मईया हमका ब्रज नारि सतउुति है।
यह लुप्त होती विधा है। जो शहर में ही नही गांव में भी समाप्त होने की कगार पर है। फाग गायकों का कहना है कि जब मनोरजंन के कोई साधन नही थे तब हमारे बुर्जग फाग गाते थे। इसमे एक तरफ आनन्द की प्राप्ति होती थी तो वही प्रभु का भजन होता था, लेकिन अब नई पीढी का इस ओर रूझान नही है।

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