दर्द से कराहता, मौत से लड़ता शायद यही कहता होगा – छोड़ मेरी खता, तू तो पागल नहीं.
लखीमपुर खीरी :- वह शायद जानता है कि दुनिया ज़ालिम है तभी तो दुनिया से अलग वह खुद को पागल अथवा दीवाना या सभ्य भाषा में विक्षिप्त कहलाना पसंद कर रहा है. उसको मालूम है कि उसको होने वाली दर्द का अहसास शायद दुनिया में किसी को नहीं होगा तभी तो वह सडको पर ठोकर तो खा रहा है मगर किसी से आह नहीं भर रहा है. उसको पता है कि लोग उसके सामने भीख का चंद टुकड़ा उसके ऊपर रहम खाकर फेक कर चले जायेगे तभी तो वह किसी से हाथ नहीं फैलाता मिला तो खाया वरना कचरे के डिब्बे में फेका हुआ सडा गला भोजन भी उसकी पेट की आग को ठंडा कर देगा. वह मानसिक विक्षिप्त है मगर उसको शायद इस बात की समझ है कि गरीबो के लिये बटने वाले कम्बल की लाइन में उसका नंबर आते आते कम्बल ख़त्म हो जायेगा. जब अपनों ने उसका सहारा बनने से इनकार कर दिया होगा तो गैरो से कैसी उम्मीद लगा लेता वह तभी तो दर दर की ठोकर खा रहा है मगर आह नहीं भरता,
उसको दुनिया शायद पागल कहती है, दीवाना कहती है या फिर सभ्यता की एक सीढ़ी चढ़ कर उसको मानसिक विक्षिप्त कहती है. मगर मन ही मन मुस्कुराता हुआ वह जानता है और शायद सोचता है कि छोड़ मेरी खता, तू तो पागल नहीं. कहा है इंसानियत और कहा है समाज को चलाने वाले कथित समाज सेवक जो गरीबी उन्मूलन में कुछ इस तरह लगते है कि गरीबो की गरीबी दूर हो या न हो मगर उनकी अमीरी अचानक बढ़ जाती है. कहा है वह समाज सेवा करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता जो किसी गरीब की सहायता तो करते है मगर कैमरे के सामने ताकि दुसरे दिन के अखबारों की सुर्खिया बटोर सके और उनकी धर्म पत्नी गर्व से अपनी सहेलियों से कह सके हे ही इज माई मैंन.
जी हा मै समझ रहा हु कि इस प्रकार से कह कर मै अपने लफ्जों की हिकारत समाज के उस वर्ग की तरफ उछालना चाहता हु जो वर्ग खुद को सम्पन्न और समाज का ठेकेदार बनता है. शायद इस गरीब, या फिर गरीब शब्द से भी बड़ा शब्द महागरीब होगा, इस असहाय, इस घायल, इस मानसिक विक्षिप्त का वोट नहीं होगा वरना कम से कम चुनावो के दौरान तो कोई न कोई नेता इसका वोट पाने के लिये इसके ज़ख्मो का इलाज कर देता.
बढती ठण्ड उसकी हर लम्हा एक मौत का सबब बनने के लिये तैयार है मगर कमबख्त ज़िन्दगी की भी लगती है जबाज़ी बहुत है जो मौत से लगातार लड़ रही है. हम बात कर रहे है निघासन में सडको के किनारे पड़े दर दर ठोकर खाते इस महा गरीब, असहाय बेसहारा व्यक्ति की जो मानसिक रूप से भी कमजोर है जिसे अपनो ने ठोकर तो मारी ही साथ मे इन दिनों ठंड के प्रकोप से बचने के लिए उसे दर दर की ठोकरें खानी पड़ रही है फटे व गंदे कपड़ों में लिपटा हुआ यह आदमी ठंड की मार से निघासन में इधर उधर किनारे पड़ा मिलता है पैर में काफी चोट लगी है उस चोट में कीड़े भी पड़े हुए है मगर उस मानसिक रूप से बीमार आदमी की तरफ न तो स्वास्थ्य विभाग ध्यान दे रहा है न ही तहसील प्रशासन की तरफ से उसे ठंड से बचने के लिए कोई गर्म कम्बल दिया गया और न ही समाज के वह सभ्य लोग जो खुद को समाज सेवक कहते है. अब देखता हु शायद किसी समाज सेवक की आँखे खुले इसके ऊपर भी. कोई ऐसा आये जिसको खबरों की सुर्खिया नहीं होना बस किसी असहाय की सहायता करना है. पिक्चर सच मायने में अभी जारी है क्योकि तहसीलदार साहेब अगर ये व्यक्ति ठण्ड से ऐसे मरता है या फिर बिना इलाज के मर जाता है तो शायद इस व्यक्ति के रूप में बस्ती की इंसानियत अपना दम तोड़ देगी. शायद इस व्यक्ति के रूप में मानवता अपना दम तोड़ देगी. शायद …… अभी इस डॉट के कई मायने है साहेब.