तारिक आज़मी की मोरबतियाँ – रोज़ खा रही युपी पुलिस मार, अब कहा है मानवाधिकार ?

तारिक आज़मी

हमारे काका कहते रहे कि बतिया है कर्तुतिया नाही तो भैया हम पहले ही कहे दे रहे है कि हम खाली बतियाते है करना धरना तो कुछ नहीं है. हम खाली सवालो से ही बतिया लेते है और भैया कर भी का सकते है. करना तो बड़े साहब लोगो को है वो चाहे तो कुछ कर सकते है मगर भैया हम कहा कह सकते है. साहब लोग नाराज़ भी हो सकते तो भैया बतिया की खटिया तनिक बिछा लेते है और बतियाना शुरू करते है.

बात अईसी है कि खबर तो खबर होती है. पुलिस हमेशा कटघरे में अपनी कार्यप्रणाली के लिये खडी कर दी जाती है. सही मायने में देखा जाए तो पुलिस अगर अपराधियों पर कार्यवाही करती है तो उसकी जवाब देहि हर तरफ कही न कही बन जाती है. हम मीडिया वालो से लेकर मानवाधिकार तक पुलिस के पीछे पड़ जाता है. बात सही भी है कि गलत नहीं होना चाहिये मानवीय अधिकारों का हनन नही होना चाहिये, मगर सवाल कुछ और भी है कि साहब आखिर पुलिस वाले इस मानवाधिकार की श्रेणी में आते है कि नहीं. मतलब हम ईसहि पूछ लिया कऊनो बात नही है पर फिर भी पुलिस वाले भाई मानवाधिकार रखते है कि नही

हम अपने सवाल पूछने के कारण को स्पष्ट कर दे अन्यथा कुछ लोगो को बुरा लग जायेगा और कहेगे देखा हो तनिक ऊ पत्रकरवा के पुलिस वालन के बड़ा हिमायती बनत बा. तो भैया पहले बता दे कि पुलिस न दोस्ती अच्छी न दुश्मनी वैसे ही पत्रकार न किसी का दोस्त है न दुश्मन. हम तो सिर्फ सच की कसौटी पर हर मुद्दे को तौलते है. इसी सच के मुद्दे पर बातो को तौलते हुवे ही तो पूछ लेते है कि साहेब ऊ कउन सी दूकान है जो महिना में 30 रुपया लेकर रोज़ दाढ़ी बनाता है और 15 दिन में एक बार बाल बनाता है. फिर उहे बात मन्ने अईसही पूछ लिया कौऊनो बात नहीं है भैया. असल में दाढ़ी बाल के लिये पुलिस को 30 रूपया महिना तन्खवाह में मिलता है न इसीलिये.

खैर मुद्दे की बात पर आते है. लगातार इधर समाचार आ रहा है पुलिस के मार खाने का. अभी इसी बीते सप्ताह में प्रदेश में तीन जगह पुलिस मार खाई. बिजनौर में पुलिस वालो को दौड़ा दौड़ा कर इस कारण उपद्रवियों ने मारा क्योकि पुलिस वह अवैध निर्माण रोकने गई थी. इसी तरह गाज़ियाबाद में भी पुलिस पर हमला हुआ और पुलिस कर्मी ज़ख़्मी हुवे. इन सबमे सबसे बड़ा दुस्साहसिक काण्ड अगर कोई था तो वह था सुल्तानपुर जनपद का जहा पैमाईश की हुई ज़मीन को आदेश के बाद कब्ज़ा करवाने गई पुलिस टीम पर हमला हो गया. दौड़ा दौड़ा के पुलिस को ग्रामीणों ने मारा. इससे भी सब्र नहीं हुआ तो गाड़िया तोड़ दिया. और सबसे दुस्साहसिक ये रहा कि ग्रामीण पुलिस के खिलाफ ही धरने पर बैठ गये और चक्का जाम कर दिया गया. इस जाम के झाम को हल करवाने पहुचे अधिकारियो ने जाम लगाये लोगो की बात को माना और जाम खुलवाया. इस दौरान हमले में घायल पुलिस कर्मियों को इलाज हेतु सीएचसी में भर्ती करवाया गया.

अब बात किया जाए मानवाधिकार की तो यही कार्यप्रणाली में पुलिस की लाठियों से कोई ग्रामीण घायल हुआ होता तो मानवाधिकार उसके लिये हडकंप मचा देता. घायल व्यक्ति को इलाज के लिये सभी पैसे देते हुवे फोटो खिचवा रहे होते. लोग बड़ी बड़ी घोषणाये कर रहे होते. कुछ तो घायल के लिये सरकारी नौकरी की मांग कर रहे होते. इलाज हेतु दिशानिर्देश आ रहे होते. मगर एक सप्ताह में घटित हुई इस तीनो घटनाओ में ऐसा कुछ नही हुआ. सब कुछ सामान्य हो गया. घायल पुलिस कर्मी सरकारी अस्पताल में इलाज करवा रहे है. और दूसरी सुबह हो चुकी है.

आज कोई नहीं है जो आवाज़ उठाये कि पुलिस वाले जो घायल है उनको सरकारी खर्च पर बड़े अस्पताल में इलाज करवाया जाये. आज मानवाधिकार नहीं बोल रहा है. हमारे देश में आतंकी अजमल कसाब को अधिवक्ता मिला जाता है और उसके तरफ से बहस करता है, मगर शैलेन्द्र सिंह जैसे पुलिस वाले को अधिवक्ता नही मिलता जबकि वायरल विडियो इस घटना को सेल्फ डिफेन्स भी बता सकता है. क्या पुलिस कर्मी शलेन्द्र सिंह का कृत्य आतंकवादी से भी गया गुज़रा है. कचहरी में अधिवक्ताओ द्वारा घेर कर पुलिस वालो को मारे जाने की कई घटनाये प्रदेश में ही नहीं देश में है. आज तक क्या अधिवक्ता जो उस घटना में दोषी है पर कार्यवाही तो दूर रही कभी मुक़दमा भी लिखा गया ? बल्कि उलटे मार खाने वाले पुलिस वाले को ही लाइन में आमद करवानी होती है या फिर जिले के बाहर कही स्थानांतरित कर दिया जाता है.

सही है कि पुलिस कर्मीयो पर मानवाधिकार का दबाव होना चाहिये, अन्यथा पुलिस निरंकुश हो सकती है. मगर एक बात ये भी सही है कि पुलिस कर्मियों के लिये भी मानवाधिकार होना चाहिये. मानवीय मूल्यों के आधार पर भारत में अजमल कसाब को वकील मुहैया करवाया जाता है ताकि भारत की न्याय प्रणाली पर कोई विदेशी आँख न उठा सके तो उसी मानवीय मूल्यों के तहत शैलेन्द्र को भी वकील मिलना चाहिये. ताकि न्याय निष्पक्ष हो. मानवाधिकार को भी पुलिस कर्मियों के लिये खड़े होना चाहिये न कि हमेशा पुलिस के खिलाफ पाले में खड़े रहे. आखिर वह भी भारत के मूल नागरिक है और देश में मिले मौलिक अधिकारों पर उनका भी बराबर का हक़ है.

चलिये साहब बहुत बतिया लिया अब ज्यादा बतियायेगे तो खटिया ही नहीं रहेगी तो बतिया कहा होगी. वैसे भी सच तनिक कड़वा होता है आसानी से हज़म नही होता है. फिर भी सच तो सच है अब बात सही हो तो कह सकते है कमेन्ट बाक्स में कमेन्ट के माध्यम से अन्यथा पान खाकर थूकना मना है भी लिखा जा सकता है क्योकि जहा ये लिखा होता है सबसे अधिक पान की पीक उसी के नीचे पाई जाती है.

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