अब और कितना गिरेंगे

आदिल अहमद

 पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया ने जो रोल अदा किया है उसने पत्रकारिता को गहरी चोट पहुंचाई है।
यह सच है कि आज जो पत्रकारिता है वह अधिकतर पैसे कमाने की होकर रह गई है और उसका मुख्य कारण बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल और समाचार पत्र अब किसी आम व्यक्ति के नहीं हैं बल्कि यह बड़े-बड़े उद्योगपतियों की निजी संपत्ती हो कर रह गए हैं। इसको इस तरह भी कहा जा सकता है कि अब इन न्यूज़ चैनलों और समाचार पत्रों में वही मिलता है जिसकी बज़ार में मांग होती है क्योंकि मामला अब मुनाफ़े का है और इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि युद्ध और युद्धोन्माद जैसा कुछ नहीं बिकता।
14 फ़रवरी को पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले और उसके बाद की घटनाओं ने तो रातों-रात भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया को बैठे बैठाए जैसे कोई बहुत बड़ा ख़ज़ाना हाथ में दे दिया हो, सीआरपीएफ़ के 40 से अधिक जवानों की मौत के बाद से अब तक का मीडिया कवरेज पत्रकारिता के नए गर्त को छूने वाला रहा है। उसने पत्रकारिता की तमाम नियंत्रण रेखाओं का उल्लंघन करके ख़ूब बदनामी कमाई है, इसमें कोई संदेह नहीं, यह पत्रकारिता के लिए सबसे बुरा समय है। यही कारण है कि आज बड़बोले और भड़काऊ ऐंकरों को खलनायकों की तरह देखा जा रहा है और उनकी चारों ओर निंदा-भर्त्सना हो रही है।
एक अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के विशेषज्ञ ने कहा कि जब मैं भारतीय मीडिया के एंकरों को देखा तो हैरान रह गया कि कैसे टीवी पर चीख़ते, बदला लेने के लिए जनता को उकसाते और सरकार पर दबाव बनाते टीवी चैनल ख़ून के प्यासे हो गए हैं। उन्होंने कहा कि मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि कैसे उन्हें शांति की हर बात नागवार गुज़र रही है, वे हर उस आवाज़ को तुरंत दबाने के लिए तैयार बैठे हैं जो अंधराष्ट्रवाद और युद्ध का विरोध करती दिखाई पड़ती है।
पिछले एक दो सप्ताह में मीडिया ने झूठ और अधकचरेपन के नए कीर्तिमान रच डाले हैं, उसने दिखाया है कि वह कितना ग़ैर ज़िम्मेदार हो सकता है और ऐसा करते हुए उसे किसी तरह की शर्म भी नहीं आती, एकतरफ़ा और फर्ज़ी कवरेज की उसने नई मिसालें स्थापित की हैं, उसने उन पत्रकारों को शर्मसार किया है जो पत्रकारिता को एक पवित्र पेशा समझते हैं और उसके लिए जीते-मरते हैं। सच तो यह है कि इस दौरान भारतीय और पाकिस्तानी अधिकतर पत्रकार, मीडिया की तरह काम कर ही नहीं रहा थे, वे एक प्रोपेगंडा मशीन में बदल चुके थे। वे सत्ता और उसकी विचारधारा के साथ खड़े दिखाई दे रहे थे,  उनका प्रचार-प्रसार कर रहे थे, बिना हिचक के देशभक्ति के नाम पर युद्धोन्माद फैला रहे थे।
पुलवामा हमले के बाद सिलसिला शुरू हुआ भावनाओं को उभारने का। भारतीय मीडिया ने ख़ास तौर पर जवानों के शवों और अंतिम संस्कार के दृश्यों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया। इसका लाभ सत्तारूढ़ दल बीजेपी को मिलना तय है क्योंकि उसके नेता अंतिम संस्कार में शामिल होने पहुँच रहे थे, सैनिको के परिजनों से वे बदला लेने के बयान दिलवा रहे थे। दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि मीडिया सवाल करना बिल्कुल भूल गया जबकि प्रश्न करना ही उसका मुख्य काम है। उसे याद नहीं रहा या फिर उसने यह भूल जाना ठीक समझा कि ज़रा ख़ुफ़िया एजंसियों की नाक़ामी के बारे में भी सवाल करे, सरकार से पूछे कि जवानों और सेना के कैंपों पर एक के बाद एक बड़े हमले हुए हैं मगर वह कुछ कर क्यों नहीं पा रही?
बातें बहुत सारी हैं पर अब लोगों के पास बहुत पढ़ने और सुनने का समय नहीं है क्योंकि आधी अधूरी बातों की मीडिया ने आदत डलवा दी है इसलिए एक प्रश्न के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं और वह यह है कि आख़िर मीडिया ने अपना स्तर इतना क्यों गिरा दिया है? इस प्रश्न के भी बहुत सारे उत्तर हैं लेकिन एक जवाब जो बहुत साफ़ है वह यह है कि जहां टीवी चैनलों और समाचार पत्रों को बड़े-बड़े उद्योगपतियों ने अपनी निजी संपत्ती बना लिया है वहीं इन्हीं उद्योगपतियों ने राजनेताओं को भी अपनी-अपनी कंपनियों का ब्रांड अम्बेसडर बना लिया है।
पाकिस्तानी मीडिया की ज़्यादा बात न करके हम भारतीय मीडिया की बात करते हैं, लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि पाकिस्तानी मीडिया पाक-साफ़ है बल्कि हम जो भी लिख रहे हैं वह दोनों देशों की मीडिया के लिए है। पिछले पाँच साल में भारत में राजनीतिक माहौल तेज़ी से बदला है। बीजेपी और उसके सहयोगी दलों ने राष्ट्रवाद के नाम पर उन्माद का ऐसा वातावरण बनाया है कि उसमें सवाल करना, तर्क और तथ्यों की बात करना बहुत ही मुश्किल हो गया है। उन्होंने सरकार, देश, सेना और देशभक्ति का आपस में घालमेल कर दिया है। इसका मतलब है कि अगर आप सरकार से सवाल करेंगे, तो माना जाएगा कि देश के विरूद्ध बात कर रहे हैं। आपको सरकार से सहमत होना ही होगा और जो ऐसा नहीं करेगा उसे पाकिस्तान का समर्थक घोषित कर दिया जाएगा।
इस नए माहौल में आतंक भी शामिल है। न केवल तर्कसंगत ढंग से बात करने वालों में ख़ौफ़ फैल चुका है बल्कि मीडिया में काम करने वाले भी डरे हुए हैं। वे ऐसा कोई भी सवाल करने से घबराते हैं जिससे सत्ता पक्ष नाराज़ हो या उनकी देशभक्ति पर ही कोई सवाल खड़ा कर दे, उल्टे उनमें खुद को देशभक्त साबित करने की प्रवृत्ति इसीलिए बढ़ गई है। सेना से जुड़े मामले तो और भी संवेदनशील बना दिए गए हैं, उसके बारे में नकारात्मक टिप्पणी तो दूर कोई टेढ़ा सवाल करना भी बहुत ही घातक साबित हो सकता है। आप वही रिपोर्ट कर सकते हैं जो सरकार या सेना कह रही है। अब ऐसे माहौल में कौन इतना साहस कौन जुटा सकता है कि एक साथ सरकार, सेना और विशेषकर तथाकथित राष्ट्रभक्तों से सवाल करे इसलिए हमारा डरा सहमा और उद्योगपतियों को मुनाफ़ा कमवाने वाला मीडिया वही कह रहा है जो बाज़ार में बिक रहा है। उसे इससे होने वाले नुक़सान से कोई लेना देना नहीं है। (रविश ज़ैदी)

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