एग्जिट पोल कुछ तो बोल – आखिर इसका खर्च कौन देता है ? क्या कोई प्रायोजक है ?

तारिक आज़मी

मतदान पुरे होने के बाद एग्जिट पोल ने चर्चो में अपनी जगह बना लिया है। पुरे चुनावों भर मोदी लहर तलाश करती हमारी मीडिया को चुनावों में मोदी लहर तो कही नही दिखाई दी, मगर चुनाव के खत्म होते ही एग्जिट पोल ने ज़मीन के अन्दर से मोदी करेंट तलाश लिया और एक बिजली के तरह से एग्जिट पोल दे डाला। इस बार एग्जिट पोल में काफी सवाल पैदा हो रहे है। वैसे बताते चले कि कांग्रेसी नेता शशि थरूर जिन्होंने देश में टि्वटर और सोशल मीडिया के राजनीतिक इस्तेमाल की शुरुआत की, उनके अनुसार भारत में अभी तक 56 बार एग्ज़िट पोल ग़लत साबित हो चुके हैं। यही नही उपराष्ट्रपति ने एक बयान में तो यहाँ तक कह दिया कि एग्जिट पोल को कभी ‘एग्ज़ैक्ट पोल’ नहीं मानना चाहिए।

वैसे ये एक हकीकत भी है कि 2004 के एग्जिट पोल पूरी तरह उलटे साबित हुवे थे। वही बिहार में विधानसभा चुनावों में इन एग्जिट पोल की पोल ही खुल गई थी जब सभी अनुमानों को दरकिनार करते हुवे महागठबंधन ने अपनी सरकार बना लिया था। वही अभी हुवे पांच राज्यों के चुनाव में एग्जिट पोल फेल ही रहा और छत्तीसगढ़ में तो औंधे मुह गिर पड़ा था। राजस्थान जहा भाजपा की सरकार बनवा रहा था वहा भी औंधे मुह गिरा था ये एग्जिट पोल। बहरहाल पुरानी कहानी भूल भी जाएँ तो इस बार के एग्ज़िट पोल में अनेक विरोधाभास हैं, जो पूरी प्रक्रिया में कई सवाल उठाते हैं। इस बार के आम चुनावों में न्यूज़ एक्स ने भाजपा के एनडीए को 242 सीटें दी हैं तो आज तक ने 352 सीटें दे दीं। दोनों आकलनों में 110 सीटों का फर्क है जो 45 फ़ीसदी से ज़्यादा है। अब आप सिर्फ इसमें ही सोच ले कि किस तरह दो सर्वे एक दुसरे के उलट साबित हो रहे है।

अब अगर बात करे न्यूज़-18 की तो उसने कांग्रेस गठबंधन को 82 सीटें दी हैं। जबकि न्यूज़ एक्स ने 164 सीटें दी हैं। इन दोनों के आकलनों में दोगुने का फ़र्क है। एग्ज़िट पोल में विसंगतियों की कुछ तस्वीरे आप इस तरह देखे कि आज तक ने पंजाब में बीजेपी को 4 सीटें दे दीं, बीजेपी तीन पर ही लड़ रही है। टाइम्स नाऊ ने उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी को 2.9 फ़ीसदी वोट दे दिया। वो पार्टी उत्तराखंड में चुनाव ही नहीं लड़ रही। आजतक ने बिहार में एनडीए को 100% सीटें दे दीं। 38-40 में अगर 38 को मानें तो गठबंधन को बिहार में सिर्फ़ किशनगंज और अररिया मिलेगी, अगर 40 मान लें तो इन दोनों सीटों पर भी महागठबंधन हार रहा है। इतना भरोसा अमित शाह को भी नहीं होगा। एक एक्ज़िट पोल में यूपी में एनडीए को 68 सीटें दे डाली हैं, एक में 24 कितना फर्क, ये तीन गुना फर्क सिर्फ दो अलग अलग कंपनी के सर्वे पर ही आ गया।

छत्तीसगढ़ और झारखंड तक में एनडीए को एकतरफ़ा जीतता हुआ दिखाया गया है। लगभग सारे एक्ज़िट पोल्स में। आंध्र में एक एक्ज़िट पोल में टीडीपी जीत रही है, एक में वाईएसआरसीपी। अंतर देखेंगे तो डबल का दिखेगा। बंगाल की भी यही कहानी है। तिगुने-चौगुने का अंतर है बीजेपी की सीटों में। एक में 8 है, तो एक में 29। पिछले तमाम एक्ज़िट पोल्स को उठाकर देख लीजिए, सबमें बीजेपी को वास्तविक से ज़्यादा सीटें मिलती नज़र आएंगी। 2019 में अगर आज तक का आंकड़ा सही निकलता है तो ये हम सभी पत्रकारों को अपनी पत्रकारिता की दूकान बंद कर देना चाहिये। कही न कही से हमारे दिन लदने का संकेत होगा कि 2014 से बड़ी लहर को हम भांप नहीं पाए।

देश में एग्ज़िट पोल की शुरुआत 1957 में सीएसडीएस ने की थी, जिसे एनडीटीवी के प्रणय रॉय और योगेंद्र यादव ने 90 के दशक में ठोस आधार दिया। एग्ज़िट पोल के प्रकाशन और प्रसारण के लिए सन 2007 में पंजाब में प्रणय रॉय के खिलाफ चुनावी क़ानून के तहत और उसके बाद ‘दैनिक जागरण’ डिजिटल के सीईओ के खिलाफ आईपीसी की धारा 188 के तहत चुनाव आयोग ने मुकदमा भी दर्ज कराया था। इसके बावजूद एग्ज़िट पोल की पारदर्शिता और विश्वसनीयता के बारे में अभी तक पर्याप्त नियम नहीं बने। चुनाव आयोग ने इस बारे में 1997 में नियम बनाने की पहल की। सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में जनहित याचिका दायर होने के बाद सभी दलों के सहमति से जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में 126-A को जोड़ा गया, जिसे फरवरी 2010 से लागू किया गया। इस क़ानून के अनुसार वोटिंग ख़त्म होने के पहले एग्ज़िट पोल के प्रकाशन और प्रसारण पर रोक लगा दी गई और उल्लंघन पर जेल और जुर्माने का भी प्रावधान किया गया है।

आपको बताते चले कि भारत में लगभग 90 करोड़ वोटरों में लगभग 68।8 फीसदी यानी 62 करोड़ लोगों ने वोट डाले हैं। पिछले आम चुनावों में 36000 लोगों के सैंपल डाटा की तुलना में इस बार एग्ज़िट पोल कर रही अनेक कंपनियों ने 20 गुना यानी लगभग 8 लाख लोगों के डाटा विश्लेषण का दावा किया है। इसका मतलब यह हुआ कि एग्ज़िट पोल करने वाली कंपनियों ने लगभग 0.1 फीसदी वोटरों के ही जवाब इकट्ठा किए हैं। अब इसमें भी पेंच समझे। 68.8 करोड़ वोटरों के मिजाज़ को 8 लाख लोगो के बयान से कैसे सही माना जा सकता है। अब आप खुद सोचे कि इतने छोटे सैम्पल साइज़ के बाद भी एग्ज़िट पोल के आकलन में कई गुने का फर्क समझ से परे है। अब सवाल ये उठता है कि एग्जिट पोल करने वाली कंपनियों को किसी लाइसेंस की ज़रूरत ही नही है। आप खुद सोचे कि स्टेशन पर कुली को और सड़क पर ऑटो वालों को सरकारी लाइसेंस चाहिए तो फिर चुनाव आयोग एग्ज़िट पोल करने वाली कंपनियों का भी रजिस्ट्रेशन और नियमन क्यों नहीं करता ? म्युचुअल फंड की तर्ज़ पर एग्ज़िट पोल के सैम्पल साइज़ के खुलासे के लिए भी चुनाव आयोग का नियमन होना ही चाहिए। इसके अलावा एग्ज़िट पोल करने वाली कंपनी के स्वामित्व संगठन का ट्रैक रिकॉर्ड, सर्वे की तकनीक, स्पॉन्सर्स का विवरण, वोटरों का सामाजिक प्रोफाइल, प्रश्नों का स्वरुप और प्रकार, सैम्पल वोट शेयर को सीटों में बदलने की प्रक्रिया के डिस्क्लोजर से एग्जिट पोल की व्यवस्था स्वस्थ और पारदर्शी होगी। अगर ऐसे ही स्थिति रही और सोशल मीडिया कंपनिया अगर इस एग्जिट पोल के कारोबार में उतर आई तो आप सोचिये स्थिति कितनी भयावाह होगी क्योकि डाटा लीक होने की पूरी संभावना रहेगी।

अब आ जाते है खर्च पर। एग्ज़िट पोल करने वाली कंपनियों ने 8 लाख लोगों के डेटा इकट्ठा करने के दावे को अगर सही माना जाए तो एक व्यक्ति पर औसतन 400 रुपया खर्च आता है। इसको अगर जोड़े तो कुल खर्च एक कंपनी का 32 करोड़ होता है। इसमें कंपनी का मुनाफा शामिल नही है। इस प्रकार से अगर सभी दस कंपनियों का हिसाब जोड़े तो कुल खर्च बिना मुनाफे के 320 करोड़ आता है। भूलना नहीं चाहिए कि टीवी चैनलों की कमाई का एक बड़ा ज़रिया सरकारी विज्ञापन हैं। भारत में राजनीतिक दलों को अपनी आमदनी में कोई टैक्स नहीं देना होता पर एग्ज़िट पोल करने वाली कंपनियों को ऐसी कोई छूट हासिल नहीं है। क्या एग्ज़िट पोल करने वाली कंपनियों को राजनीतिक दल आर्थिक मदद दे रहे हैं? एग्ज़िट पोल की कंपनियों और टीवी चैनलों के आर्थिक रिश्ते क्या और कैसे हैं? एग्ज़िट पोल की आर्थिक व्यवस्था की अगर फॉरेंसिक जांच कराई जाए तो नेताओं और मीडिया के आपसी रिश्तों पर संदेह की परत हट सकेगी। मगर सवाल अभी भी अधूरा रहेगा कि ये पैसे किसने दिये। इतना खर्च करके क्या टीवी चैनल उतना कमा सकता है। टीआरपी कलेक्शन में माना एग्जिट पोल एक बड़ा माध्यम बन सकता है। मगर क्या एक चैनल इतना पैसा खर्च करेगा। अगर नही करेगा तो फिर इसका फायनेंसर कौन है। आखिर प्रायोजक का तो पता होना चाहिये।

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