विचारधारा का फेर, गोडसे भक्ति अब तोड़ रही रिश्ते
ए जावेद
महात्मा गांधी एक नाम और एक शक्सियत ही नही बल्कि एक विचारधारा का नाम है। एक ऐसी विचारधारा जिसने जोड़ना सिखाया है। वही दूसरा नाम है उनके हत्यारे नाथू राम गोडसे का। गोडसे शायद सघ के विचारधारा का हीरो हो सकता है। तभी तो संघ भले अपने बयानों में लाख गाँधी प्रेम दर्शाता रहे मगर हकीकत में संघ के एक भी कार्यकर्ता से आप बात करे तो आपको स्थिति साफ़ दिखाई देगी। संघ के अधिकतर कार्यकर्ता आपको गोडसे की भक्ति में सराबोर दिखाई देंगे। शायद ये उनको ट्रेनिंग के दौरान मिली शिक्षा का ही असर है जिसने गाँधी की शिक्षा नही बल्कि गोडसे की शिक्षा दिया।
गांधी, पहले तो आपको बताते चले कि मोहनदास करम चन्द्र गांधी जिनको साबरमती का संत भी कहा जाता है ने खुद से अपने नाम के साथ पदवी नही लगाई है। राष्ट्रगान लिखने वाले रविन्द्र नाथ टैगोर ने उनको महात्मा की पदवी दिया था। एक विचारधारा से सुभाष चन्द्र बोस और गांधी जी समान नही थे, मगर उन्ही सुभाष चन्द्र बोस ने महात्मा गांधी को 1944 में राष्ट्रपिता की पदवी दिया था। तब से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी नाम से देश जानता है।
अब एक विचारधारा ने पिछले पांच सालो में जन्म लिया जिसने गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को अपना आदर्श माना और उसको धर्म रक्षक की पदवी दे डाली। गोडसे बोल्तोये जैसी पुस्तकों की रचना हुई और उसे नाथू राम गोडसे द्वारा लिखित बताया गया। खूब प्रचार प्रसार भी शुरू हो गए। मगर इस सबके बीच भाजपा और संघ ने खुद को किनारा किया हुआ था। भले साध्वी प्रज्ञा ठाकुर जैसे आतंक के आरोपियों ने गोडसे को देशभक्त कह डाला हो और बाद में अपने बयान को वापस लिया हो। मगर संघ और भाजपा ने इसको मौके की नजाकत ही समझा होगा।
सघ और भाजपा अच्छी तरह से जानते है कि जिस गांधी के सत्य और अहिंसा के आंगे ब्रिटिश शासन भी घुटने टेक दिया उसके चाहने वालो से बल से तो लड़ा नही जा सकता है। शायद एक अलग तरीका अपना ले। मगर ताकत के साथ गांधी के चाहने वालो और गांधीगिरी से नही लड़ सकते है। ये वह रास्ता था जिससे महात्मा गांधी ने कभी न अस्त होने वाला सूरज रखने वाले ब्रिटिश हुकूमत का सूरज आखिर अस्त ही कर दिया था। गांधी जी अच्छी तरह जानते थे कि बल से ब्रिटिश हुकूमत से नही लड़ा जा सकता है। शायद इसी कारण उन्होंने सत्य और अहिंसा का वह हथियार चुना जो फिरंगियों के पास नही था। फिरंगी इसी हथियार से कमज़ोर थे। लड़ाई बड़ी थी तो हथियार पर खुद का बड़ा कंट्रोल होना चाहिये भी था। गांधी विचारधारा के तौर पर उभरे और इस हथियार को उनकी विचारधारा के लोग आज भी अपने अन्दर रखे हुवे है।
मगर शायद अब वक्त बदल रहा है। गोडसे तीन गोली से गांधी को तो मार सकता है मगर उसकी विचारधारा को नही ये सत्य है। मगर 7 दशक पूर्व चली गोडसे की तीन गोली अब रिश्तो को मार रही है। इसको लोकतंत्र का सबसे खराब हिस्सा अभी तक का कहा जा सकता है जब उन गोलियों से अब रिश्तो की मौत हो रही है। कई खबरे ऐसी पहले भी आ चुकी है। चुनाव पूर्व एक खबर आई थी कि दूल्हा गोडसे विचारधारा का था तो दुल्हन ने शादी से इनकार कर दिया था। खैर वह शादी होने में बड़ा समय था और दोनों सिर्फ एक दुसरे को देखने और मिलने आये थे। इस बीच अब दोस्तियाँ भी टूटने लगी है। राजनितिक विचारधारा में एक दुसरे के समान न होने के बाद अब गाँधी और गोडसे विचारधारा में टकराव का वक्त आ गया है।
अब उदाहरण आपको खुद का ही देता हु। हम दो दोस्त काफी पुराने दोस्त थे। इसमें शब्द थे लगाना इस लिए भी ज़रूरी हो चूका है कि विचारधारा में टकराव है को थे कर चूका है। लगभग 15 वर्षो की दोस्ती में हम दोनों दिन में एक बार तो एक दुसरे का हाल चाल फोन पर ज़रूर लिया करते थे। मगर मैंने जब उसके ऍफ़बी वाल पर गोडसे की भक्ति और गोडसे को धर्मरक्षक जैसे शब्दों से संबोधित पोस्ट देखा तो मैंने आपत्ति किया। इस आपत्ति में बाते इतनी दूर चली गई कि दो अलग अलग विचारधारा के लोग दो दिशा में चल पड़े, हकीकत में ये है गोडसे की तीन गोलियों का नतीजा जिससे गांधी अथवा गांधी की विचारधारा तो नही मरी मगर रिश्ते अब ज़रूर दम तोड़ रहे है।
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