बिहार – चमकी बुखार से पीड़ित 75 फ़ीसदी परिवार है गरीबी रेखा के नीचे, जाने और कई चौकाने वाले तथ्य
अब इन रिपोर्ट्स को देखे तो बिहार का कोई भी राजनैतिक दल इसके ऊपर आरोप प्रत्यारोप किसी और पर नही कर सकता है। हकीकत में तो सभी एक साथ कटघरे में खड़े है। अगर नितीश के जदयू पर आरोप है तो फिर 15 सालो तक हुकूमत सँभालने वाली लालू यादव की आरजेडी भी इससे खुद को अलग नही कर सकती है। अगर इन दोनों दलों को सवालात के कटघरे में खड़ा करते है तो फिर भाजपा और रामविलास पासवान की लोजपा को भी क्लीन चिट नही दिया जा सकता है। क्या खुसूसी सूबे का तमगा लेने के बाद ही बिहार के गरीबी पर काम करेगी वहा की हुकूमत। क्या खुद की ज़िम्मेदारिया नही बनती है।
अनिला आज़मी
वाराणसी/पटना: गरीबी भी मौत का सबब बन सकती है। ये शब्द शायद बुरा लगे पढने में मगर इसका अहसास तो हो सकता है। गरीब की आवाज़ कितनी दूर जाती है ये आपको भी मालूम होगा। इसका जीता जागता उदहारण सामने आया है एक सर्वे रिपोर्ट में। टाइम्स आफ इण्डिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में अब भी 287 परिवार के बच्चे चमकी बुखार से पीड़ित है। वही बिहार में चमकी बुखार से प्रभावित बच्चों के तीन चौथाई परिवार गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) जीवन-यापन करते हैं। यह खुलासा बिहार सरकार द्वारा सामाजिक आधार पर करवाए गए एक सर्वे में हुआ।
सर्वे किये जाने वाले परिवारों के घरों की औसतन सालाना आय लगभग 53,500 रुपये या 4,465 रुपये प्रति माह है। बता दें कि रंगराजन समिति ने 2011-12 में ग्रामीण बिहार के लिए गरीबी रेखा को प्रति व्यक्ति प्रति माह 971 रुपये बताई थी। औसतन पांच लोगों के परिवार के लिए यह राशि 4,855 प्रति माह थी। अब इसमें हम सालाना दो फीसदी महंगाई के हिसाब से भी जोड़ें तो आठ साल बाद यह राशि 1138 रुपये प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह या पांच लोगों के परिवार के लिए 5711 रुपये प्रतिमाह होगी। जिन परिवारों का सर्वे किया गया उनमें से 77 फीसदी इससे भी कम कमाते हैं जबकि उनमें से अधिकतर परिवारों में 6-9 सदस्य हैं।
इस सर्वे में ऐसे भी परिवार सामने आए जिनकी सालाना आय 10 हजार रुपये अथवा इससे कम है जबकि सर्वे के तहत आने वाले सबसे अच्छे परिवारों की सालाना आय 1 लाख 60 हज़ार रुपये से कम है। सर्वे किए जाने वाले परिवारों में से लगभग 82 फीसदी यानि 235 परिवार मजदूरी करके घर का खर्च चलाते हैं। लगभग हर तीसरे परिवार के पास राशन कार्ड नहीं है जबकि जिस हर छह में से एक परिवार के पास राशन कार्ड है उन्हें पिछले महीने राशन नहीं मिल पाया।
287 में 200 यानि 70 फीसदी परिवारों ने कहा कि चमकी से बीमार होने से पहले उनके बच्चे धूप में खेल रहे हैं। वहीं, उनमें से 61 बच्चों ने रात को सोने से पहले खाना नहीं खाया था। लगभग दो-तिहाई परिवार यानि 191 परिवार कच्चे घरों में रहते हैं, जिनमें से केवल 102 परिवारों को ही प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ मिल पाया। इन घरों में 87 फीसदी लोगों के पास पीने का साफ पानी नहीं है जबकि करीब 60 फीसद लोगों के घरों में शौचालय नहीं है। बीमार लोगों के लिए सरकार की ओर से चलाए जा रहे एंबुलेंस योजना के बारे में 84 प्रतिशत परिवार को जानकारी नहीं है। लगभग 64 फीसदी घर लीची के बगीचे वाले इलाकों के आस-पास बसे हैं। वहीं, इन घरों के लोगों ने कहा कि उनके बच्चों ने बीमार होने से पहले लीची खाई थी।
अब इन रिपोर्ट्स को देखे तो बिहार का कोई भी राजनैतिक दल इसके ऊपर आरोप प्रत्यारोप किसी और पर नही कर सकता है। हकीकत में तो सभी एक साथ कटघरे में खड़े है। अगर नितीश के जदयू पर आरोप है तो फिर 15 सालो तक हुकूमत सँभालने वाली लालू यादव की आरजेडी भी इससे खुद को अलग नही कर सकती है। अगर इन दोनों दलों को सवालात के कटघरे में खड़ा करते है तो फिर भाजपा और रामविलास पासवान की लोजपा को भी क्लीन चिट नही दिया जा सकता है। क्या खुसूसी सूबे का तमगा लेने के बाद ही बिहार के गरीबी पर काम करेगी वहा की हुकूमत। क्या खुद की ज़िम्मेदारिया नही बनती है। आज चमकी बुखार पर सोशल मीडिया, वेब मीडिया और कुछ नेशनल चैनल ने मुद्दा गरम कर दिया तो सभी तरफ से आवाज़े आने लगी। लोग लीची के बागो में काम करने वाले मजदूरों से हमदर्दी दिखा रहे है। वही अगर दुसरे कारोबार पर नज़र डाले तो मामला और भी ज्यादा ख़राब दिखाई देगा। मखाने की खेती में जुड़े मजदूर और यहाँ तक कि किसानो की भी हालत कुछ अच्छी नही है। बल्कि इसके उलट मखाने के कारोबार में व्यापारी अच्छी मलाई खा रहे है। अब देखना होगा कि बिहार की सूबाई हुकूमत इसके ऊपर कब नज़र दौडाती है। या फिर इंतज़ार होगा उसको किसी और घटना का।