बुनकरों की बदहाली पर तारिक आज़मी की मोरबतियाँ : सादगी तो हमारी ज़रा देखिये, एतबार आपकी बातो पर कर लिया, बात तो सिर्फ एक रात की थी मगर, इंतज़ार आपका उम्र भर कर लिया
तारिक़ आज़मी
हमने बताया था कि बनारस का बुनकर समाज बेहद ही मासूम है। इसको उसकी सादगी ही कही जाएगी कि वह हर एक के फुसलाने पर फिसल जाता है। कोई आता है उससे वायदा करता है, वह उन वायदों पर यकीन कर लेता है। अपने संघर्ष की वरासत को अपनी आने वाली पीढ़ी को देते चला आ रहा बुनकर समाज अब बर्बादी और तंगहाली के कगार पर पहुच गया है। बुनकर बाहुल्य क्षेत्र में आप घूम कर देख ले, आपको छोटी छोटी दुकाने देखने को मिलेगी। ये दुकाने पुश्तैनी नही है बल्कि तालाबंदी के बाद से खुली है।
आइये आपका तार्रुफ़ करवाते है एक बुनकर से। लल्लापुरा के ताड़ के बगीचा निवासी मुबारक अली के दो बेटे है। मुबारक अली पुश्तैनी बुनकर है। साडी की बिनकारी ही उनके और उनके पुरखो का कारोबार था। आसाईशे भी थी। दाल रोटी चल जाती थी। धीरे धीरे करघे का कारोबार खत्म होने के कगार पर पहुच गया। आसाईशे भी कम होने लगी। मुआशरे को बदलाव चाहिए था। बदलाव कुदरत का कानून है तो इसको मुबारक मियाँ भी समझते थे। वरासत में मिले संघर्ष को अपना जीवन समझने वाले मुबारक मियाँ ने अपने दस हस्तकरघा बेच डाला। बहुत ही मामूली कीमत मिली थी। फिर तिनका तिनका जोड़ का ज़िन्दगी भर की बचत काम आई।
सभी रकम मिला कर दो पॉवर लूम लगवा लिया। ज़िन्दगी ने फिर ट्रैक पकड़ा और चल पड़ी ज़िन्दगी की गाडी। बेटे भी दोनों बड़े हो रहे थे। उनके लिए भी बेहतर फैसला किया था मुबारक अली ने। दोनों वक्त पॉवरलूम “छः का छत्तीस” की आवाज़ निकाल रहा था। आसाईशे दुबारा कदम मुबारक के घर में ला चुकी थी। कारोबार भी जमकर चल रहा था। वक्त बढ़िया आया था। मुबारक मियाँ दिन के पांच वक्त नमाज़ पढ़े और कारोबार पर ध्यान दे। मगर हया को शायद मुबारक मियाँ की खुशियाँ रास नही आ रही थी। कारोबार मंदी की मार के चपेट में आ गया। काम धीरे धीरे कम हो गया।
फिर वक्त आता है और कमबख्त ज़ालिम कोरोना ने मुल्क में दस्तक दिया। मुल्क में लॉकडाउन लगा दिया जाता है। इस तालाबंदी ने जैसे मुबारक मियाँ और उनके कुनबे के मुकद्दर पर भी ताला चढ़ा दिया। काम धाम सब बंद। मुबारक मियाँ ने इसको “अल्लाह की रज़ा” मान अपने बच्चो से कहा कि जान है तो जहांन है। घर में तिनका तिनका जोड़ कर रखी गई रकम दुबारा काम आई। मुबारक मियाँ की अहील्या (पत्नी) ने भी अपनी ज़िन्दगी भर की बचत को घर खर्च के लिए निकाला लिया। दोनों बेटो में समझदारी थी। उन्होंने ने अपने खर्च कम कर दिए। अपने वालिदैन का साथ देने लगे। वक्त गुज़रा और तालाबंदी खत्म हुई।
अब दुबारा काम की तलाश हुई। कारोबार दोबारा खटरपटर करने को कहने लगा। काम आया मगर जिस थान की मजदूरी 24 रुपया होती थी वह अब 20 हो गई। उस से बिजली का खर्च बढ़ गया। बकिया कमर तोड़ दिया तो महंगाई ने। दो जून की रोटी खाने की जद्दोजेहद ज़िन्दगी का मकसद होता है तो रोटी की क्वालिटी ख़राब कभी नही किया था मुबारक मियाँ की अहील्या ने। “बच्चे अच्छा खाए भले से खुद रुखी सुखी दोनों मिया बीबी खाकर अल्लाह का शुक्र भेज कर सो जाए” जैसे सोच रखने वाले इन वालिदैन ने भी ऐसा ही किया। मगर बेटे भी समझदार है और फर्माबरदार। अपने हिस्से की रोटी पहले माँ बाप को खिलाते तब खुद खाते।
हालात ख़राब नही बल्कि बद से बद्दतर होते जा रहे थे। मजदूरी जो कम हुई उसपर बिजली ने कमर तोड़ डाली। महंगाई ने तो जीना मुहाल कर रखा था मगर मुबारक मियाँ फिर भी हिम्मत नही हार रहे थे। बेटो ने भी इसको अपने संघर्ष का मुकद्दर मान कर लगे रहे। उमीद बस एक थी कि आज नही तो कल “अल्लाह सब ठीक करेगा।“ बेशक धार्मिक सोच और आस्था बहुत उम्मीद देती है। इस उम्मीद पर इंसान बड़ी से बड़ी जंग जीत लेता है। मुबारक मियाँ का कुनबा भी ऐसे ही जंग लड़ रहा था। काम से कुछ बचत ख़ास नही हो रही थी। दाल रोटी चलना मुश्किल होता जा रहा था। मगर “बेकार से बेगार भली” को समझ कर मुबारक मियाँ और उनके बेटे लगे रहे।
आखिर घर में हालात और भी बद से बत्तर होते जा रहे थे। कारोबार से इतनी भी बचत नही हो पा रही थी कि दाल रोटी चल सके। अब फैसले का लम्हा आन पड़ा था। फैसला करना था कि ज़िन्दगी की गाडी चलाने के लिए अब फैसला लेना था। फैसला बहुत भारी था। एक तरफ उस कारोबार की महारत जिसको उनकी 7 पीढी से अधिक करती आ रही थी। दूसरी तरफ था कोई और कारोबार। बड़ी सोच समझ के साथ फैसला करना था। एक रास्ता और था कि पॉवर लूम बेच कर कही नौकरी कर लिया जाए। मगर ज़मीर गवारा नही कर रहा था कि पुरखो की वरासत को ऐसे खत्म कर दिया जाए।
आखिर मुबारक मियाँ ने काफी सोच समझ कर फैसला करना था। पॉवर लूम से बमुश्किल एक दिन में 200 रुपया की बचत हो रही थी। आखिर मुबारक मियां ने फैसला कर लिया। अपनी अहील्या के साथ उन्होंने अपना फैसला साझा किया। फिर अपने बच्चो को बताया कि मैं खुद एक चाय की दूकान खोल लेता हु, तुम दोनों कारोबार को जारी रखो। ऐसे घर की माली हालात भी कुछ ठीक हो जाएगी। दाल रोटी और तालीम का खर्च निकल जायेगा। फिर फैसले को “हिकमते-ए-अमली” में लाये।
घर के पास ही एक छोटी सी टेबल पर चाय की दुकान खोल लिया। इसके लिए अहैल्या ने उनको अपनी बचत के चंद सिक्के थमाए। एक छोड़ा गैस चूल्हा, गैस, कुछ बर्तन, एक दिन के चाय का दूध, चीनी, चायपत्ती और डिस्पोज़ल गिलास। सब जुगाड़ करने के बाद हुस्न में चार चाँद लगाने वाले हाथो ने चाय बनानी शुरू किया। जो हुस्न को तराश सकता है वह कलाकार हाथ अब चाय बनाता है। महज़ 4 रुपयों में 5 स्टार होटल से भी अच्छी चाय की क्वालिटी देने वाले मुबारक मियाँ की चाय शोहरत हासिल करने लगी। हमने भी पी कर देखा। बरिश्ता और सीसीडी की क्वालिटी भी फीकी पड़ जाये इनकी क्वालिटी के आगे। महज़ चाय से शुरू कर अब मुबारक मियाँ ने अपनी इस छोटी सी दूकान या फिर कहे खोमचे पर पान मसाला, सिगरेट, बिस्किट, नमकीन, आदि भी रखना शुरू कर दिया है। बेटे पॉवर लूम चला रहे है। मुबारक मियाँ चाय बेच रहे है। आसाईशे वापस आना शुरू हो गई है।
हमेशा चाय की दूकान पर पैसे देकर चाय पीने वाला आज खुद चाय पिला रहा है। मुहब्बत से बात करना, मुस्कराहट में अपने दर्द छिपाना आम दिन का हिस्सा हो गया है। मुबारक मियाँ की चाय पीकर हमने कहा बेशक काफी लज़ीज़ चाय है। हमारी तारीफ पर मुबारक मियाँ ने थोडा मुस्कुरा कर कहा, ज़र्रानवाज़ी का शुक्रिया। उनके लफ्ज़ उनकी तालीम को बयान कर रहे थे। हमने पैसे दिया तो दो चाय का महज़ 8 रुपया देख हम भी सन्न रह गये कि इतनी अच्छी क्वालिटी की चाय और इतनी कम कीमत। मुबारक मियाँ के चेहरे पर एक चमक है। वो लाख कोशिश करे अपनी मुस्कराहट से अपने दर्द छिपाने की, मगर दर्द तो आँखों में भी दिखाई दे जाता है।
बेशक ये मुबारक मियाँ आपको ताड़तल्ले, लल्लापुरा में मिलेगे। मगर हर बुनकर बाहुल्य क्षेत्र में ऐसे कई मुबारक अपनी मुस्कान में अपने दर्द छिपा कर ज़िन्दगी जी रहे है। हर एक नुक्कड़ पर तालाबंदी की मार सह रहा बुनकर दिखाई दे जायेगा। हर मोहल्ले में एक मुबारक आप तलाशे तीन चार मिल जायेगे हर एक नुक्कड़ पर। मन्दी की मार से बेहाल बुनकर कारीगरी के कम होने से बेहाल है। कारोबार पर पड़ी मार उसपर बिजली और कच्चे माल की कीमतों में इजाफा उसको बेहाल किये हुवे है। मगर आज भी अपने वरासत में मिली संघर्ष का दामन बुनकर नही छोड़ रहा है।
मै जानता हु मेरे मोरबतियाँ में आपको काका काकी की तलाश होती है। मुझको ये भी पता है कि सटायर से आप मुस्कुराना चाहते है। मुझसे आपकी उम्मीद ऐसी भारी भरकम लफ्जों और मुद्दों की नही होती है। मगर बेशक ये मुआशरे की मांग है कि इन बुनकरों के दर्द को भी बयां किया जाये। मुआशरा जिनकी मुश्किल हालात को नही देख पा रहा है उनको दिखाया जाए। बेशक दर्द होता है साहब ऐसे मुबारक को देख कर। काश सरकार इनके मुताल्लिक कुछ सोचती, मगर सिर्फ वायदों से ज़िन्दगी इन बुनकरों की चल रही है।
अगर एक बुनकर मैं होता तो चंद अलफ़ाज़ में अपने हालात बयान कर देता कि “सादगी तो हमारी जरा देखिये, ऐतबार आपकी बातो पर कर लिया। बात तो सिर्फ एक रात की थी मगर, इंतज़ार आपका उम्र भर कर लिया।” बुनकरों के लिए सियासी आंसू काफी देखा है। कह सकते है कि “लगा हुआ है परो की वही नुमाईश में, जो कह रहा था कि उड़ना मुझे पसंद नही।” अगर ऐसे मुबारक यानि बुनकरों के हालात को पढ़ कर देख कर आपके दिल में एक कसक नही उठती, तो माफ़ कीजियेगा आपका दिल अब पत्थर का हो चूका है।