उर्दू अदब के मशहूर शायर मिर्ज़ा “ग़ालिब” के यौम-ए-पैदाईश पर बोल शाहीन के लब आज़ाद है तेरे : हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया, पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता
शाहीन बनारसी
उर्दू अदब के अज़ीम-ओ-शान शायर मिर्ज़ा “ग़ालिब” की आज 324वीं यौम-ए-पैदाईश है। मिर्ज़ा असदुल्लाह खां “ग़ालिब” उर्दू अदब के एक ऐसे शायर है जो इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत तो हो चुके है। मगर आज भी हमारे दिलों में ज़िंदा है। “ग़ालिब” के कलाम आज भी हमारे कानो में शकर घोलते है। उर्दू अदब के शायरों में जो चाशनी “ग़ालिब” के कलामों में मिलती है, वो किसी और शायर के कलामों में नही मिलती। मिर्ज़ा “ग़ालिब” ने अपने कलामो मे लाजवाब अल्फाज़ो का इंतखाब किया है। कम से कम अल्फाज़ो में ज्यादा से ज्यादा बातें कह जाना ये इनकी सबसे बड़ी ख़ूबी है। “गालिब” को इस दुनिया से रुखसत हुए कई बरस बीत गए है लेकिन उनकी रूहानी और दिलचस्प कलामो को लोग आज भी बेहद पसंद करते है।
मियाँ ग़ालिब के कलामो की ही खास वजह है जो आज हम उनको भूले नही है। वह उर्दू-फारसी ज़ुबान के अज़ीम शख़्सियत थे। “गालिब” का नाम उर्दू अदब के महान शायरों के फ़ेहरिस्त में आता है। उनके कलाम के लफ़्ज़ इतने बेहतरीन है, कि आज भी वह लोगो को अपनी ओर खींचती है। यूँ तो “ग़ालिब” के सभी शेर मशहूर है मगर जब भी “गालिब” का ज़िक्र आता है तो उनका ये मशहूर शेर खुद-ब-ख़ुद लबो पर आ जाता है।
“दिल ए नादां तुझे हुआ क्या है,
आखिर तेरे इस दर्द की दवा क्या है।“
बहरहाल, उर्दू और फ़ारसी ज़ुबान के महान शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह खां “ग़ालिब” की पैदाईश आगरा में आज ही के रोज़ यानी 27 दिसम्बर 1797 को हुई थी। महज़ 5 साल की छोटी उम्र में वालिद मोहतरम मिर्ज़ा अबदुल्लाह बेग खां का साया इनके सर से उठ गया। वालिद के इंतक़ाल के बाद मिर्ज़ा अपने चाचा जान के साथ रहने लगे। वालिद के इंतक़ाल के कुछ ही सालो बाद इनके चाचा भी इंतक़ाल कर गए। चाचा के इंतक़ाल के बाद “गालिब” अपना गुज़र अपने चाचा के आने वाले पेंशन पर करने लगे। “गालिब” ने उर्दू और फारसी सीखना शुरू कर दिया और महज़ 11 साल की उम्र से ही उर्दू अदब के इस मशहूर शायर ने शेर कहना शुरू कर दिया था।
कुछ समय बाद “गालिब” दिल्ली चले आये और यही आकर बस गए। “ग़ालिब” शेर-ओ-शायरी के बहुत शौक़ीन थे। एक बार जब “ग़ालिब” शेर पढ़ रहे थे। तभी एक शख्श ने इनके शेर को सुना और सुनकर मीर तकी “मीर” को जाकर शेर सुनाया। शेर सुनकर “मीर” ने कहा अगरचा इस लड़के को एक काबिल उस्ताद मिल जाएगा तो ये लड़का एक बेहतरीन और लाजवाब शायर बन जायेगा। आखिरकार “मीर” की बात सच निकली। बेशक आज “गालिब” के जैसा कोई शायर नही है। वह उर्दू अदब के एक बेहतरीन शायर है। जिन्होंने महज़ 10-11 बरस की उम्र से ही शेर कहना शुरू कर दिया था। कम उम्र में शेर कहने की वजह से “ग़ालिब” के नाम के चर्चे दिल्ली के कुचा-कुचा में हुआ करते थे।
यह उस समय की बात है जब बहादुर शाह ज़फ़र हमारे मुल्क के शासक थे और मशहूर शायर इब्राहिम जोंक उनके दरबार के शाही कवि हुआ करते थे। “ग़ालिब” उस्ताद “जोंक” और मियां “मोमिन” के दौर के शायरों में से एक थे। उस्ताद “जोंक” का रुतबा दिल्ली के साथ-साथ शाही दरबार मे भी कायम था। “जोंक” और “गालिब” की आपस मे कभी बनी नही। दौर-ए-शायरी था और “जोंक” और “गालिब” एक-दूसरे पर शायरी के माध्यम से तंज कसते थे। एक बार “जोंक” सड़क से पालकी पर जा रहे थे और मिर्ज़ा “ग़ालिब” का ध्यान किसी ने “जोंक” के तरफ करवाया तो मिर्ज़ा “ग़ालिब” ने “जोंक” पर तंज कसते हुए कहा- “बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता। इस पर “जोंक” को गुस्सा आया और वो खफा होकर वहां से चले तो गए. मगर उन्होंने मिर्ज़ा को नीचा दिखाना चाहा और उन्हें बादशाह के दरबार के एक मुशायरे में बुलाया गया। “ग़ालिब” मुशायरे में पहूंचे. जहां दरबार मे सभी शाही दरबारी मौजूद थे। “ग़ालिब” जैसे ही हाज़िर हुए तो बादशाह ने उनसे कहा मियां “जोंक” की शिकायत है कि आप उन पर ज़रिया-ए-शायरी तंज कसते है। क्या यह बात जायज़ है? तो इस पर “गालिब” ने कहा जी बात तो बिलकुल सही है मगर जो “जोंक” साहब ने सुना वो मेरे नई ग़ज़ल के मुक्ता का मिसरा है। इस पर बादशाह ने “गालिब” से कहा क्या आप वो मुक्ता इरशाद फरमाएंगे। गालिब ने मुक्ता अर्ज़ किया।
“बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता,
वरना शहर में ग़ालिब की आबरु क्या है।“
“जोंक” “गालिब” की चालाकियों से बखूबी वाकिफ़ थे। उन्होंने “गालिब” की हक़ीक़त सबके सामने लाना चाहा और इसी मकसद से कहा कि जब मुक्ता ही इतना खूबसूरत है तो पूरी ग़ज़ल कितनी बेहतरीन होगी। इस पर बादशाह ने “गालिब” से पूरी ग़ज़ल सुनाने को कहा। गालिब ने अपने जेब मे पड़े एक कागज के टुकड़े को निकाला और उसको कुछ पलों तक उस कागज़ को निहारते रहे और फिर ये ग़ज़ल कहा।
“हर इक बात पर कहते हो तुम के तू क्या है,
तुम्ही कहो ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है।
चिपक रहा है, बदन पर लहू से पैराहन,
हमारे जेब को अब हाज़त-ए-रफू क्या है।
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजु क्या है।
रगो में दौड़ते फिरने के हम नही कायल,
जब आंख से न टपका तो फिर लहू क्या है।“
यह बात अलग थी कि कागज़ कोरा था मगर उन्होंने जोंक पर तंज कसते हुए ही सही ग़ज़ल की चंद लाइने कह डाली। जो बेशक यह बात ज़ाहिर करता है कि मिर्ज़ा “ग़ालिब” उर्दू अदब के एक अज़ीम-ओ-शान शायर है। उर्दू अदब में सबसे ज्यादा और अदब के साथ लिया जाने वाला नाम बेशक मिर्ज़ा “गालिब” का नाम है। “ग़ालिब” उर्दू अदब के एक ऐसे शायर है जिनके द्वारा लिखी गई शायरियां आज भी युवाओं को अपनी ओर खींचती है और उन्हें बेहद पसंद आती है। उनके शायरी की एक सबसे बड़ी खूबी आसान लफ़्ज़ों का इस्तमाल भी है। मिर्ज़ा “ग़ालिब” को गुज़रे हुए बरसो बीत गए है।
“ग़ालिब” ने 15 फरवरी को 1869 को इस दुनिया को अलविदा कह कर इस दुनिया-ए-फानी से रुखसत हो लिए थे। मगर आज भी वो अपने शायरी की खूबसूरती की वजह से हमारे दिलों में जिंदा है। हम जब भी उनके इशार पढ़ते है तो हमे उनके होने का अहसास होता है। शायद ही कोई ऐसा शख्श होगा जो “गालिब” को नही जानता हो। “गालिब” को यूँही नही उर्दू अदब का महान शायर माना जाता है बल्कि उन्होंने अपने शेरो शायरी से उर्दू को एक नई राह भी दी है। “गालिब” उर्दू अदब के महान शायर ही नही बल्कि एक बेहतरीन खतूत निगार भी थे। “ग़ालिब” के कलम में जो कूवत और उनके शायरी के कलामो में जो चाशनी मिलती है वो किसी और शायर के कलामो में नही मिलती है। यही वजह है जो आज भी वो हम सब के दिलो पर राज करते है। जो इम्तियाज़ी हैसियत “गालिब” को उर्दू अदब में मिली वो किसी और को न मिली। शायर तो सब बन जाएंगे मगर “गालिब” कोई न बन पाएगा। “गालिब” जैसा शायर न कोई है और न ही उनके जैसा कोई शायर आएगा। अपने कलामो की वजह से वो आज भी हम सबके बीच मौजूद है। गालिब के चंद इशार पेश है-
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे,
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे।
बे-ख़ुदी बे-सबब नहीं ‘ग़ालिब’,
कुछ तो है जिस की पर्दा-दारी है।
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए,
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।
होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को न जाने,
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है।
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए,
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए।
तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना,
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता।
देखिए पाते हैं उश्शाक़ बुतों से क्या फ़ैज़,
इक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है।
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त,
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ।