दरकते रिश्तो पर तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ: जानता हूँ सवाब-ए-ता’अत-ओ-ज़हद, पर तबीयत इधर नहीं आती, है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ वर्ना, क्या बात कर नहीं आती
तारिक़ आज़मी
बेटे ने बाप का क़त्ल कर दिया। बहु ने पति के साथ मिलकर सास-ससुर को उतारा मौत के घाट। भाई ने बहाया भाई का लहू। बेशक ये सभी अलफ़ाज़ समाज को शर्मसार करने वाले होते है। तो आइये थोडा हम भी शर्मसार हो लेते है। कम से कम पढने और बोलने में शर्मसार हो लेते है। भले दिल के अन्दर से खबरों की नुस्ख निकाल रहे हो। चलिए और थोडा आगे बढ़ते है और कुछ और खबरे बताते है। पत्नी ने ही करवाया था पति का क़त्ल। शर्मसार हुई इंसानियत जब महिला का गैंग रेप करके उसको मुह पर कालिख पोत कर घुमाया। शर्मसार हुई इंसानियत जब ससुर ने किये बहु का बलात्कार।
बेशक हमको ये सभी खबरे शर्मसार कर देती है। रिश्ते ही रिश्तो का क़त्ल कर डालते है। मियाँ ग़ालिब का शेर याद आ जाता है कि “कोई उम्मीद बर नही आती, कोई सूरत नज़र नही आती। मौत का एक दिन मु’अययन है, नींद क्यों रात भर नही आती। पहले आती थी हाल-ए-दिल पर हंसी, अब किसी बात पर नही आती।” बेशक मियाँ ग़ालिब के जज्बातों को समझा जा सकता है कि हमारी हंसी हमारे होठो से दूर होती जा रही है। हमको हसने के लिए भी पैसे खर्च करने पड़ रहे है।
आप सोचे ऊपर मैंने जितने खबरों को लिखा इसको आप अक्सर ही पढ़ते होंगे। अगर उन खबरों का सार निकाले तो वजह मिलेगी कि रिश्तो की दीवारे दरक रही है। बेशक मौत का एक दिन मु’अययन है। मगर नींद रात भर हमको करवट बदलने को मजबूर कर देती है। कितने शर्मसार हो जाते है हम जब हम किसी वृद्धाश्रम जाते है और हमको कोई ऐसे बुज़ुर्ग से रूबरू होना पड़ता है जिसका पूरा भरा परिवार हो और बुज़ुर्ग ऐसे बदहाली में अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहे है।
चार सगे भाई पूरी जवानी एक साथ गुज़ार देते है। शादी होते ही चंद सालो के अन्दर ही चार चूल्हे घर के अन्दर जलने लगते है। सोचे उस माँ-बाप पर क्या गुज़रती होगी जब उसके बेटे थोड़ी थोड़ी बात पर एक दुसरे से झगड़ा करते रहते है। झगड़े अक्सर हिंसक रूप ले लेते है। लात घूंसे से लेकर डंडा लाठी तक चल जाती है। अभी आगरा में ही एक छोटे भाई ने अपने सगे बड़े भाई को गोली मार दिया था। वजह थी कि फ्यूज़ बल्ब बदलना था। तू बदल….!नही तू बदल….! महज़ दस रूपये के बल्ब के लिए गोली चल गई। आखिर इसको क्या नाम देंगे आप। बेशक अगर लफ्ज़ कम पड़ रहे है तो इसको नाम “रिश्तो की दरकती दीवारे” दिया जा सकता है।
आप बहुत अच्छे बेटे है, बहुत अच्छे भाई है। आप अपने परिवार का ख्याल रखते है। आपका एक भाई थोडा कमज़ोर है। उसकी मदद आप करना चाहते है तो आपको थोडा चोरी छिपे करना पड़ेगा क्योकि गृहलक्ष्मी के रूप में मौजूद आपके बेड रूम में उपस्थित एक नारी ही आपको ऐसे करने पर ताने सूना बैठेगी। बेशक हम इस बात को मानते है कि हर एक इंसान ऐसा नही होता है और न ही हर एक घर में ऐसा होता है। मगर इसकी कमी भी समाज में नही है। कभी गौर करे। आज से 20-25 साल पहले परिवार विघटन की काफी कमी थी। मगर आज ये आम बात हो गई है। कभी सोचा है कि आखिर कैसे ऐसा हो गया। महज़ दो से ढाई दशक में ही ये बड़ा बदलाव आ गया।
इसका प्रमुख कारण अगर गौर करे तो आपको इसका जड़ मोबाइल से जुड़ता दिखाई देता है। चलिए एक सीन को सोचते है। बेशक ये सीन न मेरे ज़िन्दगी से गुज़रा होगा और न आपके ज़िन्दगी से। मगर गुज़र तो जाता ही है। चलिए सीन सोचते है बाते बाद में कर लिया जायेगा। मानते है सास और बहु में किसी मामले को लेकर कहा सुनी हो जाती है। कहा सुनी बड़ी ज़बरदस्त होती है। परिवार का मुखिया यानी दोनों के पति अपने अपने काम के सिलसिले में बाहर है। पुराने वक्त में सास अपने शादीशुदा बेटी को खत लिखती थी और बहु अपने माँ को खत लिखती थी। एक हफ्ता खत जाने में लगता था और एक हफ्ता जवाब आने में। सब मिला कर 20 दिन खत्म हो जाते थे। तब तक घर के अन्दर स्थिति सामान्य हो जाती थी।
अब यही सीन मौजूदा हालात में सोचे। आपसी कहासुनी के बाद सास अपने कमरे में जाती है और बहु अपने कमरे में जाती है। सास अपनी शादिशुदा बेटी को काल करती है और बहु अपनी बहन और माँ को काल करती है। सास को उसकी बेटी सलाह देती है “अच्छा अम्मा…. ऐसा हुआ…. झोंटा काहे न नोच दिए महारानी का। वगैरह, वगैरह। वही बहु अपनी बहनों और माँ को बताती है तो माँ चढ़ाए या न चढ़ाए बेटियाँ जो ढेर पढ़ी लिखी होती है जमकर चढ़ा देती है। फिर क्या शाम होते होते एक पक्कड़ और हो जाती है।
इन सबके बीच सबसे निरीह प्राणी होता है पति। पति बेचारा काम के बोझ का मारा। शाम को घर आता है तो माँ अलग मुह फुलाए बैठी मिलेगी तो बीबी अलग। अब उसकी स्थिति मंदिर के घंटे जैसी हो जायेगे जो आये बजा कर चला जाए। बीबी का पक्ष लिया तो जोरू का गुलाम, माँ का पक्ष लिया तो माँ का लाडला, पल्लू से चिपका वगैरह वगैरह की टायटल से नवाज़ दिया जायेगा। आखिर जाए तो जाए कहा, करे तो करे क्या? इनमे से कुछ निरीह प्राणी रोज़ रोज़ की इस झक झक से बचने का उपाय तलाशने लगते है तो पत्नी के द्वारा अलग होने की सलाह ही उसके लिए सबसे बड़ी देववाणी बन जाती है। फिर अपने माँ बाप के अरमानो और तमन्नाओ का गला घोटते हुवे वह निरीह प्राणी जानदार बनता है और खुद का फैसला सुना देता है।
जिस ईंट पत्थर की इमारत को माँ-बाप ने मिलकर अपनी मुहब्बतों से घर बनाया था वह वापस मकान बन जाता है। इस मकान में इंसान तो रहते है मगर रिश्ते दम तोड़ देते है। कर्म तो हमारे, हमारे सामने आने ही है और फिर हमारी खुद की भी औलादे ऐसा ही करती है। सबसे दमदार बात जो होती है वह ये होती है कि जो पति करता है वही कर्म अगर भाई कर बैठे तो क्या कहने। बेटी को अपने भाई वैसे चाहिए होते है जो अपने माँ की सुने, और पति ऐसा चाहिए जो सिर्फ उसकी सुने। इसको कमाल नही कहेगे तो और क्या कहेगे? खुद के पति को लेकर अलग होने वाली बहु अपने कृत्य पर खुश होती है मगर उसका भाई अगर यही कर्म करता है तो अपने भाभी को लानत-दर-लानत।
दरअसल हमारी भाग दौड़ की इस ज़िन्दगी में हमारे रिश्ते दरकते जा रहे है। आप कभी मौका मिले तो पारसी समुदाय को देखे। उनके यहाँ परिवार विघटन नही होता है। शायद कोई लाखो में एक मिल जाए जहा आपको पारसी समुदाय में परिवार विघटन मिले। कारण उसका यही है कि वह अपने परिवार को भरपूर समय देते है। उनकी समास्याओ को समझते है। उन समस्याओं के निदान हेतु अपना भरसक प्रयास करते है। उनके फैसले सामूहिक लिए जाते है। परिवार की रजामंदी से होते है। अन्यथा परिवार विघटन और रिश्तो के दरकने की बात तो आम होती जा रही है।
आप मदर्स डे अथवा फादर्स डे पर सोशल मीडिया पर लोगो के स्टेटस और पोस्ट देखे। आपको अहसास हो जायेगा कि देश का हर एक युवा अपने माँ और पिता से बहुत ही स्नेह करता है। उनके बिना एक पल जी नही सकता है। मगर समझ नहीं आता कि आखिर फिर वृद्धाश्रम में किसके माँ बाप रहते है। वो कौन है आखिर जिनकी पत्नी घर में और माँ बाप वृद्धाश्रम में रहते है। आखिर वो कौन है जिनके घर के बुज़ुर्ग परेशान और बदहाल रहते है। जानता हूँ सवाब-ए-ता‘अत-ओ-ज़हद, पर तबीयत इधर नहीं आती, है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ वर्ना, क्या बात कर नहीं आती। मियाँ मिर्ज़ा ग़ालिब के इस अ’शआर से अगर बात खत्म करूँगा तो कक्का कहेगे कि “अबे इतना तो बोल लिए अब का मुहवा में घुस के बोलोगे।” मगर सोचियेगा ज़रूर, इस दरकते रिश्तो की जड़ आखिर कहा है।
हकीकत आपको बताऊ जो कडवी है। हकीकत ये है कि बहु बेटी बन सकती है, सास माँ बन सकती है, दामाद बेटा बन सकता है। मगर लफ्जों में ही ये सब अच्छे लगते है। सास माँ का दर्जा बहु के नज़र में अगर पा भी जाती है तो बहु बेटी का दर्जा नही ले पाती है। बहु अगर बेटी का दर्जा ले लेती है तो सास माँ नही बन पाती है। दामाद हमेशा जीजा और दामाद ही रह जाता है बेटा बनने में एक जन्म और लग जाता है। मैं मानता हु कि इस श्रेणी में सभी नही होते है। मगर अधिकतर से इंकार नही किया जा सकता है। वैसे हमारी बातो को आप यु भी पढ़ सकते है कि “वह झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से, मैं एतबार न करता तो और क्या करता?