वाराणसी के मदनपुरा स्थित सदानंद बाज़ार में राम-जानकी मंदिर संपत्ति बिक्री प्रकरण में खूब हुई कागज़ी नूर कुश्ती, केस-केस खेल कर हुआ केस (भाग-1)

तारिक़ आज़मी

वाराणसी: वाराणसी के मदनपुरा स्थित सदानंद बाज़ार में राम जानकी मंदिर की संपत्ति की बिक्री प्रकरण में हमारी खबर के बाद हडकंप तो मचा ही है। खरीदार और बिकवाल दोनों के बीच बेचैनी का माहोल है। बेचैनी भी वाजिब है क्योकि मामला कोई छोटा मोटा नही बल्कि करोडो का है। मामले में अगर गहराई से देखे तो 32 साल तक जमकर कागज़ी नुरा कुश्ती खेली गई है। अब जब मामले में पुलिस ने जाँच शुरू कर दिया है तो वही कागज़ात सामने आ रहे है कि अदालत में ये फैसला हुआ, और ये फैसला हुआ।

मगर हकीकत ये है कि इस प्रकरण में कागज़ी नुरा इतनी खेली गई कि असली कागज़ात इस नूरा की धुल में दब गये है। हम आपको ऐसे कुछ दस्तावेजों से भी रूबरू करवा रहे है जिसमे सभी यानी खरीदारों और बिकवालो की भूमिका ही पूरी संदिग्ध दिखाई देगी। राम जानकी मंदिर के पुजारी मंदिर को किसी प्रकार की कोई क्षति नही होने की बात कह रहे है ये भी सच है। परन्तु उस मूर्ति का कोई ज़िक्र पुजारी जी नही कर रहे है जो उक्त बाइक हुवे भवन के एक साइड में बने चबूतरे के ऊपर लोहे के सिंघासन पर अष्ठधातु से बनी मूर्ति का ज़िक्र नही हो रहा है जिसकी उपस्थिति का दस्तावेज़ हमारे पास उपलब्ध है। ये दस्तावेज़ अदालत का है। फिर उस मूर्ति की बात क्यों नही होती है।

बहरहाल, प्रकरण की गहराई में थोडा जाकर देखे तो रामदेई के द्वारा इस संपत्ति जिसका भवन संख्या डी0 43/73-74 है की वसीयत राम-जानकी के पक्ष में करते हुवे सेवईत के रूप में अपने पति के दत्तक पुत्र कैलाश नाथ विश्वकर्मा को नियुक्त किया और उनको अधिकार दिया कि वह भवन में स्थित मंदिर की पूजा पाठ आदि करेगे। किरायदार से किराया लेकर अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करगे। मगर शर्त साथ ही ये भी थी कि वह इस संपत्ति को न तो बेच सकते है और न ही लीज़ पर दे सकते है। रामदेई द्वारा लिखा गया यह वसीयतनामा चीफ सब रजिस्ट्रार के यहाँ 1 नवम्बर 1965 को बही संख्या 3, के जिल्द संख्यां 652 के पृष्ठ संख्या 5 से 10 पर अंकित है। इसकी प्रति हमको राम बाबु विश्वकर्मा ने प्रकरण में बातचीत के दरमियान उपलब्ध भी करवाया है।

एक्सक्लुजिव रिपोर्ट: वाराणसी के मदनपुरा स्थित सदानंद बाज़ार में बिक गई जुगाड़ से मंदिर की संपत्ति, खरीदार महमूद आलम ने कर लिया बाहुबल से मन्दिर की संपत्ति पर कब्ज़ा, चालु है मन्दिर की सम्पति में तोड़फोड़

हमारी नज़र से वर्ष 1993 का “गांडीव” अख़बार पड़ा। इस अख़बार की सम्पादकीय इसके तत्कालीन प्रधान संपादक स्व0 भगवान दास अरोड़ा ने लिखा था। इस सम्पादकीय में तिलभान्देश्वर में बनी मस्जिद का ज़िक्र था। इस संपादकीय के तीसरे पंक्ति में इस भवन का ज़िक्र करते हुवे लिया गया है कि “इसी तरह का एक प्रसंग उसी क्षेत्र के जय नारायण कालेज के सामने स्थित मुहाल में भी चल रहा है जिसमे एक हिन्दू मन्दिर को अनधिकृत रूप से एक मुसलमान के हाथ कथित रूप से सट्टा किये जाने और उस पर कब्ज़ा दखल का विवाद न्यायालय में विचाराधीन होते हुवे भी एक पुलिस कर्मी की मिली भगत से कुछ कमरों का दखल धन के बल पर कर लिए जाने की घटना प्रकाश में आई है। तिलबन्देश्वर की तरह यह प्रकरण भी नगर की शांति के लिए खतरा बना हुआ है।”

बहरहाल, हम मुख्य मुद्दे पर रहते है। रामदेई का निधन होने के बाद मामले में कैलाश नाथ यादव की मंशा सामने आई और वर्ष 1984-85 में इस संपत्ति को खुद की संपत्ति दर्शाते हुवे कैलाश नाथ विश्वकर्मा और उनके पुत्र रामबाबु विश्वकर्मा, श्याम बाबु विश्वकर्मा और शिवनाथ विश्वकर्मा ने सट्टा जुबैर के बेटो अबू फैसल, फय्याज़ुद्दीन और अब्दुल्लाह फैजान के नाम कर दिया। सट्टा के समय संपत्ति की कीमत जो कागजों पर आंकी गई थी वह थी रुपया 2 लाख 40 हज़ार रुपया। इलाके के एक बुज़ुर्ग ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बताया था कि कीमत तय हुई थी उस समय 10 लाख रुपया। जिसमे से एक लाख सट्टे के समय दिल गया था। यह रकम सट्टे के कागज़ पर भी लिखी थी। यहाँ से शुरू हुई फिर कागजों की नुरा लड़ाई।

समझने वाली बात ये थी कि अगर सीधे रजिस्ट्री होती तो मामला फिर खुल जाता क्योकि ये वह समय था जब तिलभान्डेश्वर का प्रकरण अपने शबाब पर था। इस दरमियान अगर ये मामला उभर जाता तो बात और भी बढ़ जाती। इसीलिए रजिस्ट्री करने और करवाने के लिए लेफ्ट राईट का कागज़ी खेल तो ज़रूरी होता है। इस खेल की शुरुआत होती है और मामला अदालत की दहलीज़ पर पहुच जाता है जिसमे जुबैर के बेटो अबू फैसल, फय्याज़ुद्दीन और अब्दुल्लाह फैजान ने रजिस्ट्री करने हेतु अदालत में वाद दाखिल किया। यहाँ से असली नूरा शुरू होती है। मगर ध्यान दे तो प्रतीत होगा कि अचानक ये लड़ाई रुख बदल लेती है। सम्पति का दिन दुनी रफ़्तार से बढ़ते दाम ने इस संपत्ति के दाम में भी इजाफा किया था। जिसके बाद मामले में अजीबो गरीब खेल शुरू होता है। इस खेल में एक दुसरे पर मुकदमेबाजी का क्रम जारी हुआ।

इस दरमियान वर्ष 2001 में एक केस और इसी नुरा तर्ज पर दाखिल हुआ और 394/2001 में राम बाबु के पुत्र विनय कुमार ने इस संपत्ति को पुश्तैनी संपत्ति बताते हुवे वाद दाखिल किया गया कि ये पुश्तैनी संपत्ति है जिसको बेचने का अधिकार मेरे पिता और दादा को नही है। अधिकार हमारा भी है। इस प्रकरण में चल रहे वाद में अदालत ने आदेश जुबैर के बेटो के पक्ष में दिया और 1 लाख़ 40 हज़ार रुपया देकर भवन की रजिस्ट्री का हुक्म अदलात ने दे दिया। जिसकी रजिस्ट्री भी हो गई। भवन के कुछ हिस्सों पर जुबैर के बेटो का कब्ज़ा तो वर्ष 1993 में ही हो गया था और किरायदारो को पैसे देकर खाली करवा लिया गया था। अब बचा पुरे भवन में बने अन्य कमरों में काबिज़ एक किरायदार जगदीश श्रीवास्तव, तथा सेवईत (जो खुद को भवन मालिक साबित कर रहे थे) कैलाश नाथ और उनके बेटो राम बाबु, श्याम बाबु और शिवनाथ के कब्ज़े की बात तो अदालत के हुक्म से पुलिस बल की मौजूदगी में 3 जनवरी 2022 को भवन पूरी तरह से खाली करवा लिया गया था। (शेष अगले अंक में)

हमारी निष्पक्ष पत्रकारिता को कॉर्पोरेट के दबाव से मुक्त रखने के लिए आप आर्थिक सहयोग यदि करना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें


Welcome to the emerging digital Banaras First : Omni Chanel-E Commerce Sale पापा हैं तो होइए जायेगा..

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *