लहसुन के आसमान छूते दाम पर तारिक़ आज़मी की मोरबतियाँ: अरे गजब ‘भिन्डी’ बदनाम हुई ‘नेनुआ’ तेरे लिए….?

तारिक़ आज़मी

डेस्क: नई सरकार का गठन हो चूका है। संसद में नेता प्रतिपक्ष का नाम भी लगभग फाइनल हो चूका है। मगर एक सदन जो हमारे घर का है उसका निजाम अजीब है। सदन में बहुमत तो बहुओ के पास है, मगर अल्पमत की सरकार हमारे काका चला रहे है। अब सरकार चलाना है तो काका ने समस्त वित्त व्यवस्था मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय स्वयं अपने हाथो में ले रखा है। जबकि गृह मंत्रालय और काकी के हाथो में है। काका की सत्ता काकी भले गिराना चाहती हो, मगर काका भी बड़े मजबूती से सत्ता की कुर्सी फेविकोल से चिपका रखे है।

खैर साहब, आम दिनों की तरह तो आज की सुबह कतई नहीं थी, क्योकि चाय के जगह काका की कर्कश आवाज़ ने नीद तोड़ी नही बल्कि उजाड़ डाला। किसी तरह पाँव में चप्पल डाल सीधे गृह सदन में पेश हुआ जहा काका और काकी का वाक् युद्ध अपने चरम पर था। एक तरफ काका ‘नहीं दिया तो का करे’, पर टिके थे और दूसरी तरफ काकी बहुओ के सदस्यों सहित काका पर जमकर हमलावर थी कि ‘तो क्या मटन बिना लहसुन के बनेगा?’ थोड़ी देर तक तो बात नहीं समझ आई मगर काकी पक्ष की सदस्य बहु द्वारा प्रदान चाय ने दिमाग की ‘बत्ती’ जलाया। जिसके बाद बात समझ में आई कि काका मटन लाये और लहसुन नही लाये, सब्जी वाले रामखेलावन ने लहसुन देने से मना कर दिया और कहा कि मत लो।

अब काकी इसी पर हमलावर थी और काका के खिलाफ तो अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा लाना चाहती थी। अब काका की गृह संसद सत्ता भी बचाना था क्योकि मुझे पता था कि काका के खिलाफ अगर गृह सदन में अविश्वास प्रस्ताव आया तो काका की सत्ता गिर सकती है। क्योकि बहुमत की आकड़ो पर बराबर खडी काकी के पक्ष में काका के भी दो वोट जा सकते है, जो सत्ता पक्ष से नाराज़ चल रहे है। ऐसे में काका की सत्ता बचाने के लिए तुरन्त मैंने अपने वीटो का तुरंत प्रयोग किया और कहा कि मामले की पहले तफ्तीश करके मैं स्वयं आता हु, उसके बाद फिर अविश्वास प्रस्ताव की बात होगी। तत्काल मुझे विवेचना करना है। इस बात पर गृह सदन के सभी सदस्य राज़ी हो गये और मैं भी बिना किसी वक्त को गुज़ारे काका के मुह में एक रजनीगंधा का पाउच ठुस दिया ताकि मेरे अनुपस्थिति में काका कछु बोल न सके और गृह सदन का माहोल ठंडा रहे।

बहरहाल साहब, काका के मुह में अपने 10 रुपया के रजनीगंधा की बलि देकर तत्काल हाथो में झोला लेकर मैं खुद राम खेलावन च के सब्जी की दूकान पर पहुच गया। हरी सब्जियों को देख कर सभी का मन हरा भरा हो जाता है तो मेरा भी होता है। मगर आज नही हुआ, पतझड़ के सूखे पत्ते जैसा मन कांप रहा था कि चने के झाड पर अटकी काका की सत्ता न गिर पड़े। कही काका हमारे काकी के ताने सुन कर रजनीगंधा की कुर्बानी बेसिन में न दे दे अन्यथा एक और अविश्वास प्रस्ताव का मुद्दा बन जायेगा। भाई, बहुओ के पास बहुमत जाने का खतरा मंडरा रहा था। हमारी बेचैनी को शायद राम खेलावन च समझ गये थे और जल्दी जल्दी अपने ग्राहकों को खाली कर रहे थे। राम खेलावन च काका के पुराने मित्रो में से भी है।

जैसे ही वह खाली हुवे मैंने तुरंत कहा ‘क्या चाचा, काहे काका को परेशान करते हो, अरे लहसुन काहे नही दे दिए चाचा देखो वाकयुद्ध जारी है घर में, अरे सत्ता परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है।’ हमारी बात सुनकर रामखेलावन च के मुह पर आई कुटिल मुस्कान बता रही थी कि काका कछु काण्ड देकर गये है। बोले ‘अरे बबुआ तुम्हारे काका सठिया गये है अब। ऊ हमसे 10 रुपईया का लहसुन मांग रहे थे। अब अगर हम 50 ग्राम उनको लहसुन देते तो चार बात वो हमको सुनाते। भिन्डी का दाम पूछ कर ही आग बगुला हो गये थे।’

हमारे भी कान खड़े हो गये। मैंने पूछा चाचा लहसुन कितने किलो है, एक किलो दे दो’। काका ने तराजू पर लहसुन रखते हुवे कहा कि ‘बाबु तुमको 200 का भाव लग जायेगा, भिन्डी और निनुआ का भी भाव सही है 80 में भिन्डी और 40 में नेनुआ, पियाज़ भी 40 में है।’ दाम सुन कर होश फाख्ता हो चुके थे। मुझे अब समझ में आया कि काका को क्यों टरका दिया था राम खिलावन चा ने। मैंने आहिश्ता से एक किलो लहसुन जो तुलवाया था झोले में डाला और पैसे देने लगा तब तक रूटीन के अनुसार रामखिलावन च तराजू से दो किलो भिन्डी और दो किलो नेनुआ भी डाल चुके थे। फाख्ता होश के साथ प्याज की फरमाइश किया और कहा ‘चाचा घर भेजवा देना एक पसेरी’।

तारिक आज़मी
प्रधान सम्पादक

पैसे देते हुवे बड़े ही धीमे आवाज़ में मैंने कहा ‘चाचा अमूमन भिन्डी और नेनुआ एक ही भाव होते है, फिर ये दुने का फर्क क्यों?’ इस पर चाचा बड़ी जोर से हंस कर बोले ‘भिन्डी बदनाम हुई, नेनुआ तेरे लिए।’ रामखेलावन च का गाना कान में शक्कर के जगह गुरु नमक घोल रहा था। मैं ज़हरीली मुस्काना के साथ घर पंहुचा और काकी को सब्जी का थैला थमा कर उनको धीरे से पूरी बात बताया। सुनकर काकी काकी ने भी मुस्कुरा कर काका को देखा और कहा ‘मियाँ सुनो, जो भी खरीदना है, आज ही खरीद लो, क्या पता कल बाज़ार में ज़हर भी महंगा हो जाए।’ अपने काका भी कहा चुकने वाले, उन्होंने भी तपाक से जवाब दे डाला ‘गर यही मयार-ए-दयानत है तो कल का ताजिर, धुप में बर्फ का बाट लिए बैठा होगा।’ काका काकी के बीच शेर फेकने का दौर जारी रहा, मैं धीमे कदमो से सर झुकाए सरक लिया। काका की सल्तनत बचाने के लिए ‘कसम से बड़ा खर्चा हो गया यार।’

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