‘हमारे गांव में हमारा शासन’ अभियान में प्रमुख भूमिका निभाने वाले गांधीवादी वन अधिकार कार्यकर्ता मोहन हीराबाई हीरालाल ने किया दुनिया को अलविदा

एम0 आर0 खान

डेस्क: गांधीवादी और वन अधिकार कार्यकर्ता मोहन हीराबाई हीरालाल का गुरुवा (23 जनवरी) को बीमारी के बाद निधन हो गया। वह 75 वर्ष के थे और चार दशकों तक महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और चंद्रपुर जिलों में जंगल और आदिवासी अधिकारों के लिए काम करते रहे थे। विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण से प्रेरित हीरालाल ने आदिवासी बहुल पूर्वी महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के लेखा-मेंढा गांव में ‘मावा नाटे – मावा राज’ (हमारे गांव में हमारा शासन) अभियान में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

मोहन हीराबाई हीरालाल जयप्रकाश नारायणजी की छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के सक्रिय सदस्य और गांधी जी-विनोबा जी की जनशक्ति की अवधारणा के समर्थक थे, उन्होंने 1984 में गढ़चिरौली जिले में वृक्षमित्र की स्थापना की थी। मोहन ने आदिवासियों, जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए रचनात्मक लड़ाई लड़ी। उन्होंने गांधी जी-विनोबा जी के ‘जनशक्ति’ सिद्धांत के विचारों को व्यवहार में लाकर ‘ग्राम स्वराज’ की अवधारणा को साकार किया।

मोहन हीरालाल ने गढ़चिरौली जिले के मेंढ़ा (लेखा) गांव में ‘मावा नाटे मावा राज’ आंदोलन की नींव रखी, जिसका उद्देश्य था – ग्राम सभा को अधिक समावेशी, सहभागितापूर्ण और सक्रिय बनाना। उनके प्रयासों से गांव में महिला भागीदारी, शराबबंदी, वन संरक्षण और अधिकार, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, सांस्कृतिक अधिकार, युवा सशक्तिकरण, स्थिरता, समानता और सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित किया गया।

वर्ष 1984 में मोहन हीराबाई हीरालाल महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में ‘वृक्षमित्र’ संस्था की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने वन संरक्षण, स्थायित्व, समानता और सुरक्षा जैसे तीन प्रमुख मुद्दों पर प्रभावी और व्यवस्थित प्रबंधन को अपनाया। मोहन हीराबाई हीरालाल ने ग्रामीणों में वनों पर उनके कानूनी अधिकारों के बारे में जागरूकता पैदा की, जिससे स्थानीय, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर सहभागी वन प्रबंधन को लोकप्रिय बनाने में मदद मिली। इसके परिणामस्वरूप सरकार द्वारा वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत 2009 में मेंढ़ा (लेखा) और मार्डा गांवों को सामुदायिक वन अधिकार प्रदान किए गए।

सदियों से आदिवासी समुदाय अपनी आजीविका के लिए जंगलों पर निर्भर रहे हैं, जिसे 1950 के निस्तार अधिकार घोषणापत्र में मान्यता दी गई है। हालांकि, वन और राजस्व विभागों के नौकरशाही हस्तक्षेप ने अक्सर इन अधिकारों को सीमित कर दिया। लेखा-मेंढा ने इस अन्याय को चुनौती दी, अंततः वन संसाधनों पर अपने समुदाय की स्वायत्तता को सुरक्षित किया। आज, कोई भी सरकारी एजेंसी ग्राम सभा की मंजूरी के बिना गांव में कोई भी परियोजना नहीं चला सकती है। उनके सबसे उल्लेखनीय संघर्षों में से एक शोषणकारी बांस-कटाई अनुबंधों के खिलाफ था। 1991 में जब सरकार ने कागज़ मिलों को न्यूनतम लागत पर बांस की कटाई करने की अनुमति देने वाले समझौते को नवीनीकृत किया, तो ग्राम सभा ने इसका विरोध किया।

उन्होंने मुख्यमंत्री को याचिका दायर कर अपने स्वयं के बांस संसाधनों के प्रबंधन के अधिकार का अनुरोध किया। जब उनकी याचिका को नज़रअंदाज़ कर दिया गया, तो उन्होंने चिपको आंदोलन की तर्ज पर विरोध शुरू कर दिया। तीन साल तक सरकार और कागज़ कंपनी ने उनके प्रतिरोध को दबाने का प्रयास किया, लेकिन गांव अडिग रहा। आखिरकार, सरकार ने उनकी बात मानी और यह सुनिश्चित किया कि बांस की बिक्री को लेकर ग्रामीणों की शर्तों पर बातचीत की जाएगी।

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